Wednesday, 10 August 2016

मृत्यु से डर

मुझे मृत्यु से डर लगता है
*मुझे मृत्यु से डर लगता है, इस विषय में सोचता भी हूँ तो रोम-रोम कम्पन्न करने लगता है..! क्या करूँ..?*

जो जन्मा है उसे मरना पड़ेगा, जिस चीज का एक छोर है, उसका दूसरा छोर भी होगा..!अगर मृत्यु का भय लगता है तो जीवन को जानने की कोशिश करो और कोई उपाय नहीं है..!मृत्यु का भय इस बात का सबूत है कि तुम्हें अब तक जीवन का कोई अनुभव नहीं हुआ..!जीवन के अनुभव के लिए ध्यान को समझो, ध्यान केवल आसनों के अभ्यास तक ही सीमित नहीं है, ध्यान जीवन के पूर्ण रूपांतरण से जुड़ा है..!

*कुछ ध्यान के वास्तविक अर्थ के बारे में…*
सच्ची खुशहाली को अनुभव करने का सिर्फ एक ही तरीका है- अपने भीतर की ओर मुड़ना..!ध्यान का यही अर्थ है- ऊपर नहीं, बाहर नहीं, बल्कि अंदर, बाहर निकलने की एकमात्र राह अंदर की ओर है..! ध्यान का संबंध जीवन में सशक्‍त व सबल होकर जीने से है, सिर्फ सब्जियां खाने, खुद को तोड़ने-मरोड़ने, या अपनी आंखें बंद करना भर नहीं है..!ध्यान का अर्थ है- जीवन की चक्रीय प्रक्रिया को तोड़कर इसे एक सीधी रेखा बनाना, हमारे मस्तिष्क की गतिविधियां, हमारे शरीर की केमेस्ट्री, यहां तक कि हमारे वंशानुगत गुण भी ध्यानाभ्यास से बदले जा सकते हैं..!ध्यानयोग इस बारे में है कि हम अपनी पूंजी को शरीर, दिमाग और भावनाओं से हटाकर अपनी अन्तरात्मा में लगाएं, कल्पना से हटाकर वास्तविकता में लाये..!आदमी मरता है, औरत मरती है, बच्चा मरता है, जवान मरता है, जो-जो चीजें मरती हैं उनसे अपने को अलग कर लो...और रोज एक घंटे के लिए कोशिश करो अपने भीतर खोजने की, कि क्या कुछ और भी है इन सब चीजों के अलावा..? हजारों लोगों ने अनुभव किया है, निरपवाद रूप से कि तुम्हारे भीतर शाश्वत जीवन का झरना है, जिस दिन तुम्हें उसकी एक बूंद भी पीने को मिल जाएगी, उसी दिन मौत का भय मिट जाएगा..!यह मौत की अनुकंपा है तुम्हारे ऊपर कि वह तुम्हें चैन से नहीं बैठने देती, कभी न कभी खयाल दिला ही देती है कि मरना होगा,  बुढ़ापा आने लगा, कमजोरी आने लगी, अब दूसरी घड़ी में मौत के सिवाय और क्या है..?

इसके पहले कि मौत आए, तुम अमृत को पहचानने की थोड़ी-सी कोशिश करो..!

एक घंटा निकालो अपने लिए और एक घंटा चौबीस घंटे में से अपने लिए निकाल लेना कोई महंगा सौदा नहीं है, एक घंटा खींच लो, तेईस घंटे संसार को दे ही रहे हो, एक घंटा ईश्वर को दे देने में इतनी क्या कंजूसी..? ज्यादा देर नहीं लगेगी कि तुम ध्यान के संपर्क में आओ, अपने भीतर जहां अंतःसरिता की भांति अब भी जीवन गंगा बह रही है, इसके पहले कि वह सुख जाए, उससे परिचय बना लेना बेहद जरूरी है..! यही असली मौका है, चुनोती है, कसौटी है, अग्निपरीक्षा है अपने लिये एक घंटा निकालना-

मृत्यु का भय किसको नहीं लगता? हर आदमी यही सोचता है कि मौत हमेशा किसी और की होती है। और उसके तर्क में कुछ बात तो है, क्योंकि अपने को तो कभी मरते नहीं देखता। हमेशा औरों को मरते देखता है। दूसरों की अर्थियों को मरघट तक पहुंचा आता है। नदी में स्नान करके प्रसन्न अपने घर लौट आता है हैरान होता हुआ कि मैं क्या अपवाद हूं। मरघट गांव के बाहर बनाए जाते हैं। बनाना चाहिए गांव के ठीक बीच में; ताकि हर आदमी रोज देखे कि कोई मर रहा है। और जो लाइन क्यू की उसने बना रखी थी, वह छोटी होती जा रही है। उसका नंबर भी अब करीब है। लेकिन हम गांव के बाहर बनाते हैं कि एक आदमी मर गया, बात भूलो, छोड़ो। कोई मरता है तो हम बच्चों को घर के भीतर खींच लेते हैं कि बच्चों को मृत्यु का पता न चले। लेकिन यूं धोखाधड़ी से काम तो न चलेगा। जो जन्मा है उसे मरना पड़ेगा। जिस चीज का एक छोर है, उसका दूसरा छोर भी होगा।
अगर मृत्यु का भय लगता है तो जीवन का जानने की कोशिश करो। और कोई उपाय नहीं है। मृत्यु का भय इस बात का सबूत है कि तुम्हें अब तक जीवन का कोई अनुभव नहीं हुआ।

मैंने तो सुना है कि बहुत लोग मरने के बाद ही जान पाते हैं कि हे राम! मैं इतने दिन जिंदा था। जिंदगी यूं ही गुजर जाती है फिजूल कामों में। कम से कम घड़ी भर अपने के लिए, अपने जीवन की खोज के लिए दो। एक घंटे भर के लिए कम से कम शांत बैठ  जाओ, मौन बैठ जाओ। भूल जाओ कि तुम हिंदू हो कि मुसलमान, जैन कि ईसाई। भूल जाओ कि आदमी हो कि औरत। भूल जाओ कि बच्चे कि जवान। भूल जाओ इस सारे जगत को। तो धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर से एक शाश्वत जीवन का अनुभव उभरने लगता है। हिंदू मरता है, मरना पड़ेगा उसे। आदमी मरता है, औरत मरती है, बच्चा मरता है, जवान मरता है, मुसलमान मरता है।

जो जो चीजें मरती हैं उनसे अपने को अलग कर लो एक घंटे के लिए रोज। और कोशिश करो अपने भीत खोजने की कि क्या कुछ और भी है इन सब चीजों के अलावा? और हजारों लोगों ने अनुभव किया है निरपवाद रूप से, कि तुम्हारे भीतर शाश्वत जीवन का झरना है। जिस दिन तुम्हें उसकी एक बूंद भी पीने को मिल जाएगी, उसी दिन मौत का भय मिट जाएगा।

यह मौत का भय अच्छा है। यह तुम्हें जगाए रखता है। अगर तुम्हारे भीतर मौत का भय न होता तो शायद दुनिया में बुद्ध महावीर, जैसे व्यक्ति के पैदा होने की कोई संभावना न थी। यह मौत की अनुकंपा है तुम्हारे ऊपर कि वह तुम्हें चैन से नहीं बैठने देती। कभी न कभी खयाल दिला देती है कि मरना होगा। यह बुढ़ापा आने लगा। अब दूसरी घड़ी में मौत के सिवाय और क्या है? इसके पहले कि मौत आए, तुम अमृत को पहचानने की थोड़ी-सी कोशिश करो।

और एक घंटा चौबीस घंटे में से अपने लिए निकाल लेना कोई महंगा सौदा नहीं है। बेवकूफियों के लिए तुम कितना समय निकालते हो! मैंने लोगों को देखा है ताश खेल रहे हैं। पूछो, क्या कर रहे हो? कहते हैं, समय काट रहे हैं। नालायकों! अपने को काट रहे हो कि समय काट रहे हो? समय को कौन काट सकता है? सिनेमा की तरफ भागे जा रहे हैं, भिड़ें लगी हैं। टिकट की खिड़कियों पर झगड़े हो रहे हैं। पूछो, क्या? समय काटना है। तीन घंटे सुख से कट जाएंगे। और किन छोटी-छोटी बातों में तुम अपने समय को काटते फिर रहे हो! मित्रों से झूठी गपशप में समय काट रहे हो। बिना यह जाने कि यही समय तुम्हें अमृत का अनुभव भी दे सकता है। और मैं तुमसे नहीं कहता कि हिमालय चले जाओ, सब छोड़-छाड़ दो। उससे कुछ न होगा। हिमालय पर बैठकर भी तुम शतरंज की चलें ही सोचोगे।

यहीं रहो। एक घंटा खींच लो। तेईस घंटे संसार को दे रहे हो, एक घंटा ईश्वर को दे देने की क्या इतनी कंजूसी! सोने के पहले बिस्तर पर बैठकर एक घंटा दे दो। और ज्यादा देर नहीं लगेगी कि तुम उस संपर्क में आ जाओ अपने भीतर, जहां अंतःसलिला की भांति अब भी गंगा जीवन की बह रही है। उसके पहले कि वह सुख जाए, उससे परिचय बना लेना जरूरी है। मृत्यु का भय मिट जाएगा। क्योंकि तब तुम जानोगे, मृत्यु होती ही नहीं।

मृत्यु इस दुनिया में सबसे बड़ा झूठ है। केवल शरीर बदलते हैं, घर बदलते हैं, वस्त्र बदलते हैं। लेकिन तुम्हारा जो सत्व है, वह सदा से वही का वही है। लेकिन उससे पहचान होनी चाहिए। उससे पहचान के अतिरिक्त धर्म का कोई अर्थ नहीं है। न तो मस्जिद जाने से यह होगा और न गुरुद्वारा जाने से और न मंदिर जाने से। क्योंकि वहां भी तुम वही कम्बख्तियां करोगे। आखिर तुम्हीं तो हो न। अब मंदिर में एक सुंदर स्त्री दिख गई तो बिना धक्का दिए कैसे रह सकते हो? और मंदिर जैसे पवित्र स्थान में ऐसा अपवित्र कार्य करना एकदम शोभनीय है!

नहीं, इस संसार में ही जहां सारा उपद्रव चल रहा है, असली मौका है, कसौटी है, अग्निपरीक्षा है। यही घंटे भर के लिए कभी भी...। और यूं भी नहीं है कि वह समय निश्चित हो। क्योंकि लोग बहाने खोजते हैं एक से एक, कि समय निश्चित करना मुश्किल है। मैं तुमसे नहीं कहता समय निश्चित करो। जब बन सके, लेकिन एक बात याद रखो, चौबीस घंटे में ही जीवन के सारे सत्यों का अवबोधन, अनुभव, तुम्हें मृत्यु के भय से छुड़ा देगा। जीवन को जान लो, फिर कोई मृत्यु नहीं है।


अलहिल्लाज मंसूर एक प्रसिद्ध सूफी हुआ, जिसका अंग-अंग काट दिया मुसलमानों ने, क्योंकि वह ऐसी बातें कह रहा था जो कुरान के खिलाई पड़ती थीं। धर्म के खिलाफ नहीं। मगर किताबें बड़ी छोटी हैं, उनमें धर्म समाता नहीं। अलहिल्लाज मंसूर की एक ही आवाज थी--अनलहक, अहम ब्रह्मास्मि! और यह मुसलमानों के लिए बरदाश्त के बाहर था कि कोई अपने को ईश्वर कहे। उन्होंने उसे जिस तरह सताकर मारा है, उस तरह दुनिया में कोई आदमी कभी नहीं मारा गया। उस दिन दो घटनाएं घटी।

मंसूर का गुरु जुन्नैद, सिर्फ गुरु ही रहा होगा। गुरु जो कि दर्जनों में खरीदे जा सकते हैं, हर जगह मौजूद हैं, गांव-गांव में मौजूद हैं। कुछ भी तुम्हारे कान में फूंक देते हैं और गुरु बन जाते हैं। जुन्नैद उसको कह रहा था कि देख, भला तेरा अनुभव सच हो कि तू ईश्वर है, मगर कह मत। अलहिल्लाज कहता कि यह मेरे बस के बाहर है। क्योंकि जब मैं मस्ती में छाता हूं और जब मौज की घटाएं मुझे घेर लेती है, तब न तुम मुझे याद रहते हो न मुसलमान याद रहते हैं, न दुनिया याद रहती हैं, न जीवन न मौत। तब मैं अनलहक का उदघोष करता हूं ऐसा नहीं है। उदघोष हो जाता है। मेरी सांस-सांस में वह अनुभव व्याप्त है।

अंततः वह पकड़ा गया। जिस दिन वह पकड़ा गया, वह अपनी ही परिक्रमा कर रहा था। लोगों ने पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो? ये दिन तो काबा जाने के दिन हैं। और जाकर काबा के पवित्र पत्थर के चक्कर लगाने के दिन हैं। तुम खड़े होकर खुद ही अपने चक्कर दे रहे हो? मंसूर ने कहा, कोई पत्थर अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव नहीं कर सकता, जो मैं अनुभव करता हूं। अपना चक्कर दे लिया, हज हो गई। बिना कहीं गए, घर बैठे अपने ही आंगन में ईश्वर को बुला लिया। ऐसी सच्ची बातें कहने वाले आदमी को हमेशा मुसीबत में पड़ जाना पड़ता है।

उसे सूली पर लटकाया गया, पत्थर फेंके गए, वह हंसता रहा। जुन्नैद भी भीड़ में खड़ा था। जुन्नैद डर रहा था कि अगर उसने कुछ भी न फेंका तो भीड़ समझेगी कि वह मंसूर के खिलाफ नहीं है। तो वह एक फूल छिपा लाया था। पत्थर तो वह मार नहीं सकता था। वह जानता था कि मंसूर जो भी कह रहा है, उसकी अंतर-अनुभूति है। हम नहीं समझ पा रहे हैं; यह हमारी भूल है। तो उसने फूल फेंककर मारा।

उस भीड़ में जहां पत्थर पड़ रहे थे...जब तक पत्थर पड़ते रहे, मंसूर हंसता रहा। और जैसे ही फूल उसे लगा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे! किसी ने पूछा कि क्यों पत्थर तुम्हें हंसाते हैं, फूल तुम्हें रुलाते हैं? मंसूर ने कहा, पत्थर जिन्होंने मारे थे वे अनजान थे। फूल जिसने मारा है, उसे यह वहम है कि वह जानता है। उस पर मुझे दया आती है। मेरे पास उसके लिए देने को आंसुओं के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और जब उसके पैर काटे गए और हाथ काटे गए, तब उसने आकाश की ओर देखा और जोर से खिलखिलाकर हंसा। लहूलुहान शरीर, लाखों की भीड़। लोगों ने पूछा, तुम क्यों हंस रहे हो? तो उसने कहा, मैं ईश्वर को कह रहा हूं कि क्या खेल दिखा रहे हो! जो नहीं मर सकता उसके मारने का इतना आयोजन...। नाहक इतने लोगों का समय खराब कर रहे हो। और इसलिए हंस रहा हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम छू भी नहीं सकते। तुम्हारी तलवारें उसे नहीं काट सकती। और तुम्हारी आगे उसे नहीं जला सकतीं।
एक बार अपने जीवन की धारा से थोड़ा सा परिचय हो जाए, मौत का भय मिट जाता है

                                                    *मित्रप्रेम ओशो*




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