Saturday 1 October 2016

मृत शरीर

🌹मृत शरीर जलाना अर्थपूर्ण 🌹

हिंदू जलाते हैं शरीर को। क्योंकि जब तक शरीर जल न जाए, तब तक आत्मा शरीर के आसपास भटकती है। पुराने घर का मोह थोड़ा सा पकड़े रखता है।तुम्हारा पुराना घर भी गिर जाए तो भी नया घर बनाने तुम एकदम से न जाओगे। तुम पहले कोशिश करोगे, कि थोड़ा इंतजाम हो जाए और इसी में थोड़ी सी सुविधा हो जाए, थोड़ा खंभा सम्हाल दें, थोड़ा सहारा लगा दें। किसी तरह इसी में गुजारा कर लें। नया बनाना तो बहुत मुश्किल होगा, बड़ा कठिन होगा।

जैसे ही शरीर मरता है, वैसे ही आत्मा शरीर के आसपास वर्तुलाकार घूमने लगती है। कोशिश करती है फिर से प्रवेश की। इसी शरीर में प्रविष्ट हो जाए। पुराने से परिचय होता है, पहचान होती है। नए में कहां जाएंगे, कहां खोजेंगे? मिलेगा, नहीं मिलेगा?इसलिए हिंदुओं ने इस बात को बहुत सदियों पूर्व समझ लिया कि शरीर को बचाना ठीक नहीं है। इसलिए हिंदुओं ने कब्रों में शरीर को नहीं रखा। क्योंकि उससे आत्मा की यात्रा में निरर्थक बाधा पड़ती है। जब तक शरीर बचा रहेगा थोड़ा बहुत, तब तक आत्मा वहां चक्कर लगाती रहेगी।

इसलिए हिंदुओं के मरघट में तुम उतनी प्रेतात्माएं न पाओगे, जितनी मुसलमानों या ईसाइयों के मरघट में पाओगे। अगर तुम्हें प्रेतात्माओं में थोड़ा रस हो, और तुमने कभी थोड़े प्रयोग किए हों–किसी ने भी प्रेतात्माओं के संबंध में, तो तुम चकित होओगे; हिंदू मरघट करीब-करीब सूना है। कभी मुश्किल से कोई प्रेतात्मा हिंदू मरघट पर मिल सकती है। लेकिन मुसलमानों के मरघट पर तुम्हें प्रेतात्माएं ही प्रेतात्माएं मिल जाएंगी। शायद यही एक कारण इस बात का भी है, कि ईसाई और मुसलमान दोनों ने यह स्वीकार कर लिया, कि एक ही जन्म है। क्योंकि मरने के बाद वर्षों तक आत्मा भटकती रहती है कब्र के आस-पास।

हिंदुओं को तत्क्षण यह स्मरण हो गया कि जन्मों की अनंत शृंखला है। क्योंकि यहां शरीर उन्होंने जलाया कि आत्मा तत्क्षण नए जन्म में प्रवेश कर जाती है। अगर मुसलमान फिर से पैदा होता है, तो उसके एक जन्म में और दूसरे जन्म के बीच में काफी लंबा फासला होता है। वर्षों का फासला हो सकता है। इसलिए मुसलमान को पिछले जन्म की याद आना मुश्किल है।

इसलिए यह चमत्कारी बात है, और वैज्ञानिक इस पर बड़े हैरान होते हैं कि जितने लोगों को पिछले जन्म की याद आती है, वे अधिकतर हिंदू घरों में ही क्यों पैदा होते हैं? मुसलमान घर में पैदा क्यों नहीं होते? कभी एकाध घटना घटी है। ईसाई घर में कभी एकाध घटना घटी है। लेकिन हिंदुस्तान में आए दिन घटना घटती है। क्या कारण है?कारण है। क्योंकि जितना लंबा समय हो जाएगा, उतनी स्मृति धुंधली हो जाएगी पिछले जन्म की। जैसे आज से दस साल पहले अगर मैं तुमसे पूछूं, कि आज से दस साल पहले उन्नीस सौ पैंसठ, एक जनवरी को क्या हुआ? एक जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ में हुई, यह पक्का है; तुम भी थे, यह भी पक्का है। लेकिन क्या तुम याद कर पाओगे एक जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ?

तुम कहोगे कि एक जनवरी हुई यह भी ठीक है। मैं भी था यह भी ठीक है। कुछ न कुछ हुआ ही होगा यह भी ठीक है। दिन ऐसे ही खाली थोड़े ही चला जाएगा! ज्ञानी का दिन भला खाली चला जाए, अज्ञानी का कहीं खाली जा सकता है? कुछ न कुछ जरूर हुआ होगा। कोई झगड़ा-झांसा, उपद्रव, प्रेम, क्रोध, घृणा–मगर क्या याद आता है?

कुछ भी याद नहीं आता। खाली मालूम पड़ता है एक जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ, जैसे हुआ ही नहीं।

जितना समय व्यतीत होता चला जाता है, उतनी नई स्मृतियों की पर्ते बनती चली जाती हैं, पुरानी स्मृति दब जाती है। तो अगर कोई व्यक्ति मरे आज, और आज ही नया जन्म ले ले तो शायद संभावना है, कि उसे पिछले जन्म की थोड़ी याद बनी रहे। क्योंकि फासला बिलकुल नहीं है। स्मृति कोई बीच में खड़ी ही नहीं है। कोई दीवाल ही नहीं है।

लेकिन आज मरे, और पचास साल बाद पैदा हो तो स्मृति मुश्किल हो जाएगी। पचास साल! क्योंकि भूत-प्रेत भी अनुभव से गुजरते हैं। उनकी भी स्मृतियां हैं; वे बीच में खड़ी हो जाएंगी। एक दीवाल बन जाएगी मजबूत।

इसलिए ईसाई, मुसलमान और यहूदी; ये तीनों कौमें जो मुर्दो को जलाती नहीं, गड़ाती हैं; तीनों मानती हैं कि कोई पुनर्जन्म नहीं है, बस एक ही जन्म है। उनके एक जन्म के सिद्धांत के पीछे गहरे से गहरा कारण यही है, कि कोई भी याद नहीं कर पाता पिछले जन्मों को।

हिंदुओं ने हजारों सालों में लाखों लोगों को जन्म दिया है, जिनकी स्मृति बिलकुल प्रगाढ़ है। और उसका कुल कारण इतना है कि जैसे ही हम मुर्दे को जला देते हैं–घर नष्ट हो गया बिलकुल। खंडहर भी नहीं बचा कि तुम उसके आसपास चक्कर काटो। वह राख ही हो गया। अब वहां रहने का कोई कारण ही नहीं। भागो और कोई नया छप्पर खोजो।

आत्मा भागती है; नए गर्भ में प्रवेश करने के लिए उत्सुक होती है। वह भी तृष्णा से शुरुआत होती है। इसलिए तो हम कहते हैं, जो तृष्णा के पार हो गया, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। क्योंकि पुनर्जन्म का कोई कारण न रहा। सब घर कामना से बनाए जाते हैं। शरीर कामना से बनाया जाता है। कामना ही आधार है शरीर का। जब कोई कामना ही न रही, पाने को कुछ न रहा, जानने को कुछ न रहा, यात्रा पूरी हो गई, तो नए गर्भ में यात्रा नहीं होती।

 ओशो🌹🌹

Sunday 28 August 2016

कल्पांत रेकी साधना कोर्स


भारत मे पहली बार “कल्पांत रेकी साधना कोर्स Whatsapp ओर Hike पर”

रेकी परिचय -:

 रेकी (Reiki) एक जापानी शब्द हैं।, जिसका अर्थ हैं। सर्वव्यापी जीवनी शक्ति (Universal Life Energy), इसको ब्रह्मांडीय ऊर्जा (Cosmic Energy) भी कहा जाता हैं। प्रत्येक मनुष्य इस जीवनी शक्ति के साथ उत्पन्न होता हैं। और पूरे जीवन इसका जाने अनजाने प्रयोग करता रहता हैं। लगभग 1800 ईसा के अंतिम वर्षों में डाँ मिकाओ उशुई ने रेकी को खोजा ओर उन्हे इसका संस्थापक माना गया हैं। परंतु हमारे ऋषि मुनियों ने, संत महात्माओं ने जीवन के आरंभ में ही इस विधि को जान लिया था। और वह प्रार्थना के द्वारा इसका प्रयोग करते थें। हमारे प्राचीन ऋषियों की संपदा को ही डॉक्टर मिकाओ उशुई ने खोजा और जापानीज सिंबल व जापानी मंत्र दिए, परन्तु कल्पांत रेंकी साधना में हम भारतीय सिंबल व मंत्र के द्वारा रेंकी हीलिंग सीखेंगे और यह रेकी या ऊर्जा जापानीज रेकी से हजारों गुना तेजी से काम करेंगी और इसको जानना व सीखना भी आसान होगा।

आप ने सुना होगा कि हमारे पूर्वज, गुरु, संत, महात्मा, शक्तिपात किया करते थें, और वह इससे चक्रों को जागृत किया करते थें। चक्र जागृत करने के दो ही रास्ते हैं। एक ध्यान व दूसरा शक्तिपात, तो शक्तिपात की इस क्रिया को ही रेकी कहा जाता हैं। परंतु डाँ मिकाओ उशुई ने इसे ध्यान के द्वारा प्राप्त किया था। और एक खास बात की रेकी कुंडलिनी शक्ति का प्रयोग ही हैं। रेकी मैं ऊर्जा ब्रह्मांड से लेकर आगे सामने वाले पर प्रवाहित की जाती हैं, और उसका चैनल या यूं कहें कि माध्यम हम होते हैं बस यही रेकी हैं।।

हम आपको 21 दिन का कल्पांत रेकी साधना 1 डिग्री और 2 डिग्री का कोर्स करा रहे हैं।

 यह पूरा कोर्स Whatsapp ओर Hike पर होगा, हम आपको नोट्स भेजेंगे और आपको रेकी शक्तिपात के लिये एक फोटो Whatsapp या Hike पर भेजना होगा। साथ ही एक बार 30 मिनट का समय आपको Online call पर देना होगा जिसमें आपको मंत्र दिक्षा व शक्तिपात किया जायेगा। ओर फिर आपको एक घंटे नियमित अभ्यास शुरू करना होगा

 इसके साथ हम आपको फर्स्ट डिग्री और सेकंड डिग्री की बुक पीडीएफ में देगे ओर रेकी फर्स्ट व सेकंड डिग्री का सर्टिफिकेट भी आपके पते पर भेजेंगे। जो आत्मजन कोर्स करना चहाते है उन्है 2100 रू जमा करने होगें, रू जमा करते ही आपको एक फार्म पीडीएफ मे दिया जायेंगा, आपको उसे डाउनलोड कर भरकर तीन फोटो के साथ कोरियर करना होगा। ओर साथ ही आपका कोर्स शुरू कर दिया जायेगा।

अधिक जानकारी के लिए "9958502499" पर संपर्क करें। आप ने सुना होगा कि हमारे पूर्वज, गुरु, संत, महात्मा, शक्तिपात किया करते थें, और वह इससे चक्रों को जागृत किया करते थें। चक्र जागृत करने के दो ही रास्ते हैं। एक ध्यान व दूसरा शक्तिपात, तो शक्तिपात की इस क्रिया को ही रेकी कहा जाता हैं। परंतु डाँ मिकाओ उशुई ने इसे ध्यान के द्वारा प्राप्त किया था। और एक खास बात की रेकी कुंडलिनी शक्ति का प्रयोग ही हैं। रेकी मैं ऊर्जा ब्रह्मांड से लेकर आगे सामने वाले पर प्रवाहित की जाती हैं, और उसका चैनल या यूं कहें कि माध्यम हम होते हैं बस यही रेकी हैं।।

प्राकर्तिक चिकित्सा का सर्टिफिकेट कोर्स


भारत मे पहली बार  प्राकर्तिक चिकित्सा का सर्टिफिकेट कोर्स

" कल्पांत रेकी साधना कोर्स की सफलता के बाद अब प्राकर्तिक चिकित्सा में 6 महीने का सर्टिफिकेट कोर्स Whatsapp ओर Hike पर "
हम आपको प्राकर्तिक चिकित्सा का 6 महीने का सर्टिफिकेट कोर्स करा रहे हैं। जिसमे आप स्वयं के डाक्टर बन जाते है। ओर सभी साध्य व असाध्य रोंगों का उपचार बिना दवा के प्राकर्तिक तरीके से कर पायेंगें। आपके लिये कुछ सवाल

1. क्या आपका घर मैडिकल स्टोर बनता जा रहा है ? (हाँ/नही)
2. क्या आपके दिन की शुरूआत दवाईयों से होती है ? (हाँ/नही)
3. क्या आप दवाईयाँ खाकर ठीक नही हो रहें है ? (हाँ/नही)
4. क्या आपके रोग बढ़तें जा रहें है ? (हाँ/नही)
5. क्या आप कम खाते हुए भी मोटे होते जा रहें है ? (हाँ/नही)
6. क्या आपका योग करते हुऐ भी बी पी सन्तुलित नही हो पा रहा है ? (हाँ/नही)
7. क्या आपका तनाव बढ़ता जा रहा है ? (हाँ/नही)
8. क्या तीनो समय खाना खाने के बाद भी आपको कमजोरी महसूस होती है ? (हाँ/नही)
9. क्या दिन-प्रतिदिन हास्पिटलों व बिमारियों की संख्या बढ़ रही है ? (हाँ/नही
10. क्या दैनिक जीवन में हम जहरीले रसायनों व खाद्वो का प्रयोग कर रहें है ? (हाँ/नही)
11. क्या आज प्रत्येक खाद्व पदार्थो मे मिलावटें बढ़ती जा रही है ? (हाँ/नही)
12. क्या हमारें शरीर को जरूरी पोषक तत्वो (विटामिन,खनिज तत्व,आदि) की पूर्ती नही हो पा रही है ? (हाँ/नही)
13. क्या आपकी रोग प्रतिरोध क्षमता कम होती जा रही है ? (हाँ/नही)
14. क्या आप कम उम्र मे भी बुड़े नजर आने लगें है ? (हाँ/नही)
15. क्या आपको लगता है कि जिन रोगो सें आप जूझ रहें हे उन्हें ठीक नही कर पायेंगें ? (हाँ/नही)
16. क्या आप वजन कम करने के प्रति गंभीर है ? (हाँ/नही)
17. क्या आपकी एक अच्छे स्वस्थ मे रूचि है ? (हाँ/नही)
18. क्या आप दवाईयो को जीवन मे कम करना चाहते है ? (हाँ/नही)
19. क्या आप क्रोध, भय, चिन्ता, तनाव से मुक्त व ऊर्जावान जीवन जीना चाहते है ? (हाँ/नही)
20. क्या आपको लगता है कि आप अपने रोगो को ठीक नही कर पायेगे ? (हाँ/नही)
21. क्या आप अपने स्वस्थ को केवल 1 घंण्टा देने के लिऐ तैयार है ? (हाँ/नही)

यदि आपके अधिकतर सवालो का जबाव (हाँ) है। तो आप हमारे प्राकर्तिक चिकित्सा का सर्टिफिकेट कोर्स करें। जिसमे आपको इन सब सवालो के जबाव व अधिक स्वस्थ रहने के तरीको के बारे में जान पायेंगें, ओर आप स्वयं स्वस्थ रहकर परिवार को स्वस्थ रख पायेगें।

आज एलोपैथी के उपचार से हम अपनी जीवनी शक्ति को खोते जा रहे है, ओर इतनी मेडिसन लेते हुए भी स्वस्थ नहीं हो पा रहे है, ओर रोंग ठीक होने की जगह बड़ते जा रहे है, दवाईयां कम होने की जगह निरंतर बढती जा रही है, दवाईयों व रोंगों से छुटकारा पाने के लिये प्राकर्तिक चिकित्सा का कोर्स बनाया गया है, हमारा शरीर पांच पंचतत्व व छठा चेतन तत्व (आत्म तत्व) से मिलकर बना है, ओर इन्ही तत्वों के द्वारा हम शरीर को पूर्ण रूप से स्वस्थ रख सकते है, हमारे शरीर में वो जीवनी शक्ति है जिसके द्वारा हम स्वयं रोंगों को ठीक कर सकते है, प्राकर्तिक चिकित्सा हमें वो जीवन शेली देती है जिससे हम रोंगों को तो ठीक करते ही है साथ ही साथ आने वाले रोंगों से भी बच जाते है, ओर एक बार कोर्स करके आप लाखो रूपये की सर्जरी व दवाईयों से बच जायेंगें।

इस कोर्स में प्राकर्तिक चिकित्सा का इतिहास क्या है, प्राकर्तिक चिकित्सा क्या है, प्राकर्तिक चिकित्सा के सिद्धांत क्या है, पंच तत्व क्या है, उनसे किस प्रकार चिकित्सा की जाती है, असाध्य रोंगों का उपचार बिना दवा के केसे करे, विभिन्न स्त्री, पुरुष, बच्चों के रोंग व सामान्य रोंगों के लक्षण कारण व उपचार, जल तत्व चिकित्सा, वायु तत्व चिकित्सा, आकाश तत्व चिकित्सा, मिटटी तत्व चिकित्सा, अग्नि तत्व चिकित्सा के बारे में विस्तार से जानेंगें।

यह पूरा कोर्स Whatsapp ओर Hike पर होगा। हम आपको नोट्स भेजेंगे और आपको निरंतर उनको पढ़ना होगा। 6 महीने बाद आपको एक एग्जाम पेपर पीडीऍफ़ में दिया जायेगा उसको हल करके मुझे कोरियर करना होगा, ओर आपको प्राकर्तिक चिकित्सा का सर्टिफिकेट आपके पते पर भेंज दिया जायेंगा। जो आत्मजन कोर्स करना चहाते है उन्है 5100 रू जमा करने होगें। रू जमा करते ही आपको एक फार्म पीडीएफ मे दिया जायेंगा। आपको उसे डाउनलोड कर भरकर तीन फोटो के साथ कोरियर करना होगा। ओर साथ ही आपका कोर्स शुरू कर दिया जायेगा।

कोर्स पूरा होने के बाद जो आत्मजन प्रयोगात्मक ट्रेनिग की इच्छा रखते है उन्हें एक दिवसीय ट्रेनिग हमारे केंद्र कल्पांत सेवाश्रम मुरादनगर गाजियाबाद पर 1000 रू जमा कर प्रदान की जाएगी।

अधिक जानकारी के लिए "9958502499" पर संपर्क करें

Thursday 11 August 2016

आत्मा और मन

आत्मा और मन

आत्मा क्या है और मन क्या है ?अपने सारे दिन की बातचीत में मनुष्य प्रतिदिन न जाने कितनी बार ‘ मैं ’ शब्द का प्रयोग करता है | परन्तु यह एक आश्चर्य की बात है कि प्रतिदिन ‘ मैं ’ और ‘ मेरा ’ शब्द का अनेकानेक बार प्रयोग करने पर भी मनुष्य यथार्थ रूप में यह नहीं जानता कि ‘ मैं ’ कहने वाले सत्ता का स्वरूप क्या है, अर्थात ‘ मैं’ शब्द जिस वस्तु का सूचक है, वह क्या है ? आज मनुष्य ने साइंस द्वारा बड़ी-बड़ी शक्तिशाली चीजें तो बना डाली है, उसने संसार की अनेक पहेलियों का उत्तर भी जान लिया है और वह अन्य अनेक जटिल समस्याओं का हल ढूंढ निकलने में खूब लगा हुआ है, परन्तु ‘ मैं ’ कहने वाला कौन है, इसके बारे में वह सत्यता को नहीं जानता अर्थात वह स्वयं को नहीं पहचानता | आज किसी मनुष्य से पूछा जाये कि- “आप कौन है ?” तो वह झट अपने शरीर का नाम बता देगा अथवा जो धंधा वह करता है वह उसका नाम बता देगा |वास्तव में ‘मैं’ शब्द शरीर से भिन्न चेतन सत्ता ‘आत्मा’ का सूचक है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है | मनुष्य (जीवात्मा) आत्मा और शरीर को मिला कर बनता है | जैसे शरीर पाँच तत्वों (जल, वायु, अग्नि, आकाश, और पृथ्वी) से बना हुआ होता है वैसे ही आत्मा मन, बुद्धि और संस्कारमय होती है | आत्मा में ही विचार करने और निर्णय करने की शक्ति होती है तथा वह जैसा कर्म करती है उसी के अनुसार उसके संस्कार बनते है |आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिन्दु है जो कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है | जैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिन्दु-सा दिखाई देता है, वैसे ही दिव्य-दृष्टि द्वारा आत्मा भी एक तारे की तरह ही दिखाई देती है | इसीलिए एक प्रसिद्ध पद में कहा गया है- “भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा, गरीबां नूं साहिबा लगदा ए प्यारा |” आत्मा का वास भृकुटी में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यही हाथ लगता है | जब वह यश कहता है कि मेरे तो भाग्य खोटे है, तब भी वह यही हाथ लगता है | आत्मा का यहाँ वास होने के कारण ही भक्त-लोगों में यहाँ ही बिन्दी अथवा तिलक लगाने की प्रथा है | यहाँ आत्मा का सम्बन्ध मस्तिष्क से जुड़ा है और मस्तिष्क का सम्बन्ध सरे शरीर में फैले ज्ञान-तन्तुओं से है | आत्मा ही में पहले संकल्प उठता है और फिर मस्तिष्क तथा तन्तुओं द्वारा व्यक्त होता है | आत्मा ही शान्ति अथवा दुःख का अनुभव करती तथा निर्णय करती है और उसी में संस्कार रहते है | अत: मन और बुद्धि आत्म से अलग नहीं है | परन्तु आज आत्मा स्वयं को भूलकर देह- स्त्री, पुरुष, बूढ़ा जवान इत्यादि मान बैठी है | यह देह-अभिमान ही दुःख का कारण है |उपरोक्त रहस्य को मोटर के ड्राईवर के उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया गया है | शरीर मोटर के समान है तथा आत्मा इसका ड्राईवर है, अर्थात जैसे ड्राईवर मोटर का नियंत्रण करता है, उसी प्रकार आत्मा शरीर का नियंत्रण करती है | आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण है, जैसे ड्राईवर के बिना मोटर | अत: परमपिता परमात्मा कहते है कि अपने आपको पहचानने से ही मनुष्य इस शरीर रूपी मोटर  को चला सकता है और अपने लक्ष्य (गन्तव्य स्थान) पर पहुंच सकता है | अन्यथा जैसे कि ड्राईवर कार चलाने में निपुण न होने के कारण दुर्घटना (Accident) का शिकार बन जाता है और कार उसके यात्रियों को भी चोट लगती है, इसी प्रकार जिस मनुष्य को अपनी पहचान नहीं है वह स्वयं तो दुखी और अशान्त होता ही है, साथ में अपने सम्पर्क में आने वाले मित्र-सम्बन्धियों को भी दुखी व अशान्त बना देता है | अत: सच्चे सुख व सच्ची शान्ति के लिए स्वयं को जानना अति आवश्यक है |

यह जिस्म तो किराये का घर है...
एक दिन खाली करना पड़ेगा...||
सांसे हो जाएँगी जब हमारी पूरी यहाँ ...
रूह को तन से अलविदा कहना पड़ेगा...।।
वक्त नही है तो बच जायेगा गोली से भी
समय आने पर ठोकर से मरना पड़ेगा...||
मौत कोई रिश्वत लेती नही कभी...
सारी दौलत को छोंड़ के जाना पड़ेगा...||
ना डर यूँ धूल के जरा से एहसास से तू...
एक दिन सबको मिट्टी में मिलना पड़ेगा...||
सब याद करे दुनिया से जाने के बाद...
दूसरों के लिए भी थोडा जीना पड़ेगा...||
मत कर गुरुर किसी भी बात का ए दोस्त...
तेरा क्या है... क्या साथ लेके जाना पड़ेगा...||
इन हाथो से करोड़ो कमा ले भले तू यहाँ ...
खाली हाथ आया खाली हाथ जाना पड़ेगा...||
ना भर यूँ जेबें अपनी बेईमानी की दौलत से...
कफ़न को बगैर जेब के ही ओढ़ना पड़ेगा...||
यह ना सोच तेरे बगैर कुछ नहीं होगा यहाँ ....
रोज़ यहाँ किसी को "आना"तो किसी को "जाना"
पड़ेगा...||

Wednesday 10 August 2016

कृष्ण जन्म का रहस्य

कृष्ण जन्म का रहस्य


कृष्ण का जन्म होता है अँधेरी रात में, अमावस में। सभी का जन्म अँधेरी रात में होता है और अमावस में होता है। असल में जगत की कोई भी चीज उजाले में नहीं जन्मती, सब कुछ जन्म अँधेरे में ही होता है। एक बीज भी फूटता है तो जमीन के अँधेरे में जन्मता है। फूल खिलते हैं प्रकाश में, जन्म अँधेरे में होता है।

असल में जन्म की प्रक्रिया इतनी रहस्यपूर्ण है कि अँधेरे में ही हो सकती है। आपके भीतर भी जिन चीजों का जन्म होता है, वे सब गहरे अंधकार में, गहन अंधकार में होती है। एक कविता जन्मती है, तो मन के बहुत अचेतन अंधकार में जन्मती है। बहुत अनकांशस डार्कनेस में पैदा होती है। एक चित्र का जन्म होता है, तो मन की बहुत अतल गहराइयों में जहाँ कोई रोशनी नहीं पहुँचती जगत की, वहाँ होता है। समाधि का जन्म होता है, ध्यान का जन्म होता है, तो सब गहन अंधकार में। गहन अंधकार से अर्थ है, जहाँ बुद्धि का प्रकाश जरा भी नहीं पहुँचता। जहाँ सोच-समझ में कुछ भी नहीं आता, हाथ को हाथ नहीं सूझता है।

कृष्ण का जन्म जिस रात में हुआ, कहानी कहती है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था, इतना गहन अंधकार था। लेकिन इसमें विशेषता खोजने की जरूरत नहीं है। यह जन्म की सामान्य प्रक्रिया है।

दूसरी बात कृष्ण के जन्म के साथ जुड़ी है- बंधन में जन्म होता है, कारागृह में। किसका जन्म है जो बंधन और कारागृह में नहीं होता है? हम सभी कारागृह में जन्मते हैं। हो सकता है कि मरते वक्त तक हम कारागृह से मुक्त हो जाएँ, जरूरी नहीं है हो सकता है कि हम मरें भी कारागृह में। जन्म एक बंधन में लाता है, सीमा में लाता है। शरीर में आना ही बड़े बंधन में आ जाना है, बड़े कारागृह में आ जाना है। जब भी कोई आत्मा जन्म लेती है तो कारागृह में ही जन्म लेती है।

लेकिन इस प्रतीक को ठीक से नहीं समझा गया। इस बहुत काव्यात्मक बात को ऐतिहासिक घटना समझकर बड़ी भूल हो गई। सभी जन्म कारागृह में होते हैं। सभी मृत्युएँ कारागृह में नहीं होती हैं। कुछ मृत्युएँ मुक्ति में होती है। कुछ अधिक कारागृह में होती हैं। जन्म तो बंधन में होगा, मरते क्षण तक अगर हम बंधन से छूट जाएँ, टूट जाएँ सारे कारागृह, तो जीवन की यात्रा सफल हो गई।

कृष्ण के जन्म के साथ एक और तीसरी बात जुड़ी है और वह यह है कि जन्म के साथ ही उन्हें मारे जाने की धमकी है। किसको नहीं है? जन्म के साथ ही मरने की घटना संभावी हो जाती है। जन्म के बाद - एक पल बाद भी मृत्यु घटित हो सकती है। जन्म के बाद प्रतिपल मृत्यु संभावी है। किसी भी क्षण मौत घट सकती है। मौत के लिए एक ही शर्त जरूरी है, वह जन्म है। और कोई शर्त जरूरी नहीं है। जन्म के बाद एक पल जीया हुआ बालक भी मरने के लिए उतना ही योग्य हो जाता है, जितना सत्तर साल जीया हुआ आदमी होता है। मरने के लिए और कोई योग्यता नहीं चाहिए, जन्म भर चाहिए।

लेकिन कृष्ण के जन्म के साथ एक चौथी बात भी जुड़ी है कि मरने की बहुत तरह की घटनाएँ आती हैं, लेकिन वे सबसे बचकर निकल जाते हैं। जो भी उन्हें मारने आता है, वही मर जाता है। कहें कि मौत ही उनके लिए मर जाती है। मौत सब उपाय करती है और बेकार हो जाती है। कृष्ण ऐसी जिंदगी हैं, जिस दरवाजे पर मौत बहुत रूपों में आती है और हारकर लौट जाती है।

वे सब रूपों की कथाएँ हमें पता हैं कि कितने रूपों में मौत घेरती है और हार जाती है। लेकिन कभी हमें खयाल नहीं आया कि इन कथाओं को हम गहरे में समझने की कोशिश करें। सत्य सिर्फ उन कथाओं में एक है, और वह यह है कि कृष्ण जीवन की तरफ रोज जीतते चले जाते हैं और मौत रोज हारती चली जाती है।

मौत की धमकी एक दिन समाप्त हो जाती है। जिन-जिन ने चाहा है, जिस-जिस ढंग से चाहा है कृष्ण मर जाएँ, वे-वे ढंग असफल हो जाते हैं और कृष्ण जीए ही चले जाते हैं। लेकिन ये बातें इतनी सीधी, जैसा मैं कह रहा हूँ, कही नहीं गई हैं। इतने सीधे कहने का पुराने आदमी के पास कोई उपाय नहीं था। इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

जितना पुरानी दुनिया में हम वापस लौटेंगे, उतना ही चिंतन का जो ढंग है, वह पिक्चोरियल होता है, चित्रात्मक होता है, शब्दात्मक नहीं होता। अभी भी रात आप सपना देखते हैं, कभी आपने खयाल किया कि सपनों में शब्दों का उपयोग करते हैं कि चित्रों का?

सपने में शब्दों का उपयोग नहीं होता, चित्रों का उपयोग होता है। क्योंकि सपने हमारे आदिम भाषा हैं, प्रिमिटिव लैंग्वेज हैं। सपने के मामले में हममें और आज से दस हजार साल पहले के आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। सपने अभी भी पुराने हैं, प्रिमिटिव हैं, अभी भी सपना आधुनिक नहीं हो पाया। अभी भी सपने तो वही हैं जो दस हजार साल, दस साल पुराने थे। गुहा-मानव ने एक गुफा में सोकर रात में जो सपने देखे होंगे, वही एयरकंडीशंड मकान में भी देखे जाते हैं। उससे कोई और फर्क नहीं पड़ा है। सपने की खूबी है कि उसकी सारी अभिव्यक्ति चित्रों में है।

जितना पुरानी दुनिया में हम लौटेंगे- और कृष्ण बहुत पुराने हैं, इन अर्थों में पुराने हैं कि आदमी जब चिंतन शुरू कर रहा है, आदमी जब सोच रहा है जगत और जीवन के बाबत, अभी जब शब्द नहीं बने हैं और जब प्रतीकों में और चित्रों में सारा का सारा कहा जाता है और समझा जाता है, तब कृष्ण के जीवन की घटनाएँ लिखी गई हैं। उन घटनाओं को डीकोड करना पड़ता है। उन घटनाओं को चित्रों से तोड़कर शब्दों में लाना पड़ता है। और कृष्ण शब्द को भी थोड़ा समझना जरूरी है।

कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, जो आकृष्ट करे, जो आकर्षित करे; सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन, कशिश का केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है जिस पर सारी चीजें खिंचती हों। जो केंद्रीय चुंबक का काम करे। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक अर्थ में कृष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का केंद्र है। वह सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन है जिस पर सब चीजें खिँचती हैं और आकृष्ट होती हैं।

शरीर खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, परिवार खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, समाज खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, जगत खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है। वह जो हमारे भीतर कृष्ण का केंद्र है, आकर्षण का जो गहरा बिंदु है, उसके आसपास सब घटित होता है। तो जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है, तो एक अर्थ में कृष्ण ही जन्मता है वह जो बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता है, और उसके बाद सब चीजें उसके आसपास निर्मित होनी शुरू होती हैं। उस कृष्ण बिंदु के आसपास क्रिस्टलाइजेशन शुरू होता है और व्यक्तित्व निर्मित होता है। इसलिए कृष्ण का जन्म एक व्यक्ति विशेष का जन्म मात्र नहीं है, बल्कि व्यक्ति मात्र का जन्म है।

कृष्ण जैसा व्यक्ति जब हमें उपलब्ध हो गया तो हमने कृष्ण के व्यक्तित्व के साथ वह सब समाहित कर दिया है जो प्रत्येक आत्मा के जन्म के साथ समाहित है। महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती है, सदा काव्यात्मक हो जाती है। पीछे लौटकर निर्मित होती है।

पीछे लौटकर जब हम देखते हैं तो हर चीज प्रतीक हो जाती है और दूसरे अर्थ ले लेती है। जो अर्थ घटते हुए क्षण में कभी भी न रहे होंगे। और फिर कृष्ण जैसे व्यक्तियों की जिंदगी एक बार नहीं लिखी जाती, हर सदी बार-बार लिखती है।

हजारों लोग लिखते हैं। जब हजारों लोग लिखते हैं तो हजार व्याख्याएँ होती चली जाती हैं। फिर धीरे-धीरे कृष्ण की जिंदगी किसी व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती। कृष्ण एक संस्था हो जाते हैं, एक इंस्टीट्यूट हो जाते हैं। फिर वे समस्त जन्मों का सारभूत हो जाते हैं। फिर मनुष्य मात्र के जन्म की कथा उनके जन्म की कथा हो जाती है। इसलिए व्यक्तिवाची अर्थों में मैं कोई मूल्य नहीं मानता हूँ। कृष्ण जैसे व्यक्ति व्यक्ति रह ही नहीं जाते। वे हमारे मानस के, हमारे चित्त के, हमारे कलेक्टिव माइंड के प्रतीक हो जाते हैं। और हमारे चित्त ने जितने भी जन्म देखे हैं, वे सब उनमें समाहित हो जाते हैं।

साभार : 'कृष्ण स्मृति' पुस्तक से ओशो|

प्रार्थना-2



प्रार्थना-2

कल्प वृक्ष साधना में प्रार्थना का विशेष महत्व है। तो हम पहले प्रार्थना को समझें। प्रार्थना, दुआ, प्रेयर, आर्शीवाद जिस नाम से भी पुकारो। जिसने इसे जाना, उसने इसे अपने जीवन मे उतार लिया। अपने जीवन का साथी बना लिया। उसे जिंदगी में तमाम खुशियां मिल गई। वह सुख, समृद्धि, धन दौलत, प्यार दुलार, निरोंगता से पूर्ण हो गया। जिसने इसे जाना उसने योगियों की कंठी की तरह प्रार्थना को धारण कर लिया।

               जब से इस सृष्टि के रचना हुई है, तब से प्रार्थना का अस्तित्व अमर है, और जब तक सृष्टि रहेगी, तब तक ये सिलसिला यूं ही चलता रहेगा। जब जब प्रकृति का प्रकोप हुआ, तब तब मनुष्य ने प्रार्थना के लिए हाथ उठाऐ, और जब उनका कष्ट कम हुआ तो मनुष्य की आस्था बढ़ी, कि जरूर कोई शक्ति है जो सब कुछ नियंत्रित करती है। उसके ही आधीन यह संसार चल रहा है। हम चल रहे हैं। हमारा जीवन हमारी परिस्थितियां सब उसी शक्ति के अधीन है। यह शक्ति क्या है, साकार है या निराकार, इसको जानना है, और जिससे इस प्रार्थना की शक्ति को जान लिया, उसकी जिंदगी में बदलाव की व्यार बहने लगी। साइंस भी इस बात को मानता है, कि प्रार्थना से एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है ओर वह मनुष्य को बड़े-बड़े कष्टों से बाहर निकाल देती है।

           जब भी कोई इंसान प्रार्थना करता है, हाथ जोड़ता है, शीश नवाता है, तो उसका अहं का भाव खत्म हो जाता है। वह यह प्रार्थना कहीं भी मंदिर, मस्जिद, गरूद्वारे, गिरजाघर या फिर घर पर ही कर रहा हो, तो उसका चेतन मन कुछ क्षण के लिए शांत हो जाता है, और वह अवचेतन मन में पहुंचकर ध्यान लगाते हुए अपने दुखों से छुटकारा की कामना करता है, और उसका अवचेतन मन अपने अनुभव के आधार पर इसे अन्दरूनी तौर पर हालात से निबटने के लिए तैयार कर देता है। यदि उसका विश्वास व श्रद्वा अटल होती है, कोई शंका उसके मन में नहीं होती है, तो बड़ी से बड़ी मुश्किलें भी हल हो जाती है। उसकी आध्यात्मिक शक्ति जाग्रत होती है। और एक नया आत्म बल पैदा होता है। यह सकारात्मक भावना के पैदा होते ही हमारा अवचेतन मन उसकी परिस्थितियों को बदल देता है। परन्तु तभी जब विश्वास पक्का हो, इसमें समय लग सकता है, परंतु परिस्थितियां बदलेगी जरूर, समय आपकी श्रद्वा व विस्वास पर निर्भर करता है। आपकी साधना पर निर्भर करता है, कि आप अपनी बात को कितनी गहराई से अवचेतन तक पहुंचा पायें हैं।

                  कोई कहीं भी जाकर प्रार्थना करें, उसका फल उसके विश्वास के आधार पर मिलेगा, ना कि कर्म कांड या अनुष्ठान के अधार पर, या किसी विशेष स्थान के आधार पर मिलेगा। आज दुनिया में ऐसे हजारों लोग हैं जो चमत्कार करते हैं स्वयं के साथ भी और औरो के साथ भी, उन्हें लोग महाराज, ईस्वर, संत महात्मा कुछ भी नाम दें। वह यह सब प्रार्थना के बल पर ही कर पाते हैं। वह जानते हैं, उस ढंग को उस तरीके को, कि प्रार्थना कैसे की जाए, ओर उसे कैसे फलीभूत किया जाए। और जो दुसरों के लिए प्रार्थना करता है, उसका तो अहं पहले ही खत्म हो गया होता है, और फिर उसकी प्रार्थना व साधना का फल क्यों न मिलेगा।

               जब किसी के पास कोई सहारा न होता है, जब हर तरफ सें इंसान निराश हो जाता है, जिसका कोई उपचार नहीं हो पाता, जो आजीवन दुख मे बिता रहा हो, जो समय के साथ केवल हारता जाता है, उस इंसान को भी इस से रास्ता मिल जाता है। प्रार्थना का आश्रय इतना है कि श्रद्धा व विश्वास के साथ अपने आप को अवचेतन मन से जोड़कर केवल अपने विचारों को पोषित करो।
                  दुनिया में नास्तिक व आस्तिक दो प्रकार के लोग हैं। कुछ लोग श्रद्वा व विश्वास करते हैं कि शक्ति है, कुछ लोग केवल डर के कारण मानते हैं। तुम उस शक्ति को जानो जो परमात्मा या अवचेतन की शक्ति है। वह तुम्हारे मानने से या जानने से मिट नहीं जाएगी। तुम्हारे मानने से अगर नहीं होगी, तो हो नहीं जायेगी, और जो शक्ति नहीं है वह आपके मानने से पैदा नहीं हो जाएगी, जो है वह सदा रहेगी, तुम जानो मानो या न मानो। तुम डरते हो इसलिए प्रार्थना करते हो या श्रद्वा व विस्वास है इसलिए, निर्भर इस बात पर करता है प्रार्थना का फल। अगर तुमने डर से माना कि कोई है तो कभी सफल नहीं हो पाओगे। अगर सत्य, श्रद्वा व  विश्वास से जाना तो जान लोगें, तुम सब कुछ प्राप्त कर लोगे, जो चाहोगे पा लोगे।

                 इसलिऐ डर को दूर करो, डर से नहीं प्रेम से श्रद्वा से जानो कि वह शक्ति क्या है, कैसे इसका प्रयोग कर सकते हैं। हर जगह प्रेम के फूलों की वर्षा करो, और तुम जानोगे कि प्रेम करते-करते परमात्मा तुम्हारें पास खड़ा है। अपने बच्चों को, पत्नी को, परिवार को, प्रिय जनों को, मनुष्य को, पशुओं को, पक्षियों को, पौधों को, पहाड़ों को, जहां तक तुम पहुँच सकते हो, वहां तक प्रेम रूपी प्रार्थना के पुष्प खिला दो। जैसे जैसे पुष्प खिलेंगे, परमात्मा की झलक आने लगेंगी, ओर जिस दिन तुम्हारा पूर्ण रूपेण अहं खत्म हो गया तुम प्रेममय हो गये, प्रार्थना को जान गये उस दिन तुम और परमात्मा एक हो जाओगें और चमत्कार करना तुम्हारे लिए खेल बन जाए


कल्पांत कल्पवृक्ष साधना पुस्तक से (स्वामी जगतेश्वर आनंद जी)
                              मूल्य मात्र = 250/-






प्रार्थना

प्रार्थना
मुझे कैसे प्रार्थना करनी चाहिए? मैं प्रार्थना करने में जो कुछ अनुभव करता है, मैं नहीं जानता कि अपने इस प्रेम की मैं किस तरह ठीक से अभिव्यक्त करूं?

प्रार्थना कोई विधि नहीं है, वह कोई संस्कार नहीं है, और न वह कोई औपचारिकता है। यह हृदय का सहज स्वाभाविक उमड़ता उद्रेक है, इसलिए यह पूछो ही मत—कैसे? क्योंकि यहां कैसे जैसा कुछ है ही नहीं, और ' न कैसे जैसा ' कुछ हो भी सकता है।

जिस क्षण जो कुछ घटता है, वही ठीक है। यदि आंसू उमड़ते हैं तो अच्छा है। यदि तुम कोई गीत गाने लगते हो तो यह भी ठीक है। यदि तुम नाचने लगते हो, तो भी ठीक है। यदि अंदर से कुछ भी नहीं आ रहा है और तुम बस शांत खड़े रहते हो, तो यह भी ठीक है। क्योंकि प्रार्थना, कोई अभिव्यक्ति नहीं है, वह किसी खोल या आवरण में नहीं है, वह उस खोल या आवरण में बंद उस सारभूत तत्व में है।

कभी मौन ही प्रार्थनापूर्ण होता है, तो कभी गीत गाना प्रार्थना बन जाता है। यह सभी कुछ तुम पर और तुम्हारे हृदय पर निर्भर करता है। इसलिए यदि मैं तुमसे गीत गाने के लिए कहता हूं और तुम गीत इसलिए गाते हो क्योंकि ऐसा करने के लिए मैंने तुमसे कहा था, तब वह प्रार्थना शुरू से ही नकली और झूठी है। अपने हृदय की सुनो, उस क्षण को महसूस करो और उसे होने दो। और फिर जो कुछ भी होता है, वह ठीक ही होता है।

तुम्हारे साथ कभी कुछ भी नहीं घटेगा, लेकिन वह तो निरंतर घट ही रहा है, तुम उसे घटने की अनुमति तो दो, उस पर तुम अपनी इच्छा मत लादो। जब तुम पूछते हो—कैसे? तो तुम अपनी चाह थोपने की कोशिश कर रहे हो, तुम कोई योजना बनाने की कोशिश कर रहे हो। इसी तरह तुम प्रार्थना से चूक जाते हो। इसी कारण सभी धर्मस्थल और धर्म, संस्कार और कर्मकांड बन कर रह गए हैं। उनकी एक तय की गई निश्चित प्रार्थना है, उसका एक निश्चित रूप है, एक अधिकृत और स्वीकृत किया गया अनूदित वर्णन है। लेकिन कोई भी व्यक्ति कैसे प्रार्थना की शब्दावली को स्वीकृति प्रदान कर सकता है? कोई भी व्यक्ति कैसे उसका अधिकृत वर्णन तैयार कर तुम्हें दे सकता है? प्रार्थना तो तुम्हारे अंदर से उठती और उमगती है, और प्रत्येक क्षण में उसकी अपनी प्रार्थना होती है, और प्रत्येक चित्तवृत्ति में उसकी अपनी निजी प्रार्थना होती है। यह कोई भी नहीं जानता कि तुम्हारे आतरिक संसार में कल सुबह क्या घटने जा रहा है? उसे कैसे निश्चित और तय किया जा सकता है?

एक पहले से तैयार की गई प्रार्थना झूठी और नकली प्रार्थना है; यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है। एक निर्धारित विधि से तैयार संस्कारित प्रार्थना, प्रार्थना ही नहीं है उसके बाबत यह पूरी तौर से निश्चित रूप से कहा जा सकता है। एक असंस्कारित, सहज स्वाभाविक भाव भरी मुद्रा और कुछ भी नहीं, एक प्रार्थना ही है।

कभी तुम बहुत उदासी का अनुभव कर सकते हो, क्योंकि उदासी परमात्मा से ही सम्बंधित है। उदासी भी दिव्य होती है। यहां हमेशा प्रसन्न रहना भी कोई जरूरी नहीं है। तब यह उदासी ही तुम्हारी प्रार्थना है। तब तुम अपने हृदय को रोने और बिलखने दो, और आंखों को आंसू बरसाने दो। तब इस उदासी को ही परमात्मा की अर्पित कर दो। वहां तुम्हारे हृदय में जो कुछ भी हो, उसे ही उन दिव्य चरणों में अर्पित कर दो—वह प्रसन्नता हो अथवा उदासी, और कभी—कभी वह क्रोध या आक्रोश भी हो सकता है।

जब कभी कोई परमात्मा से नाराज भी हो सकता है। यदि तुम परमात्मा से नाराज नहीं हो सकते, तो तुमने प्रेम को जाना ही नहीं। जब कभी कोई वास्तव में एक गहरे उन्माद में हो सकता है। तब अपने क्रोध को ही अपनी प्रार्थना बन जाने दो। परमात्मा से लड़ो—वह तुम्हारा है और तुम उसके हो, और प्रेम कोई औपचारिकता नहीं जानता। प्रेम में सभी तरह के संघर्ष बने रह सकते हैं। यदि उसमें लड़ाई और संघर्ष का अस्तित्व न हो, तब वह प्रेम है ही नहीं। इसलिए जब कभी तुम्हें प्रार्थना करने जैसा कुछ भी अनुभव न हो, तो तुम उसे ही अपनी प्रार्थना बना लो। तुम परमात्मा से कहो—’‘ जरा ठहरो! देखो, मेरा मूड ठीक नहीं है, और तुम जिस तरह से यह सब कुछ कर रहे हो, यह कृत्य तुम्हारी प्रार्थना करने योग्य नहीं है।’’

लेकिन तुम इसे अपने हृदय का सहज स्वाभाविक भावोद्वेग बनने दो
परमात्मा के साथ कभी भी अप्रामाणिक बनकर मत रहो, क्योंकि यह तरीका उसके साथ अस्तित्व में बने रहने का नहीं है। यदि तुम परमात्मा के साथ ईमानदार नहीं हो—यदि गहरे में तो तुम शिकायत कर रहे हो और ऊपर ही ऊपर प्रार्थना कर रहे हो? तब परमात्मा तुम्हारी शिकायत की ओर ही देखेगा, प्रार्थना की ओर नहीं। तुम झूठे बन जाओगे। वह सीधे तुम्हारे हृदय में देख सकता है। तुम किसे धोखा देने अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है?

की कोशिश कर रहे हो? तुम्हारे चेहरेकी मुस्कान परमात्मा को धोखा नहीं दे सकती, तुम्हारा वास्तविक सत्य वह जान ही लेगा। केवल वही तुम्हारे सत्य को जान सकता है, उसके सामने झूठ ठहरता ही नहीं। इसलिए वहां सत्य को ही बने रहने दो। तुम उसे केवल अपना सत्य ही भेंट करो और कहो— आज मैं तुमसे नाराज हूं तुम्हारे इस संसार से नाराज हूं तुम्हारे द्वारा दिए इस जीवन से नाराज हूं। मैं तुमसे घृणा करता हूं। और मैं तुम्हारी प्रार्थना भी नहीं कर सकता, इसलिए तुम्हें आज मेरी प्रार्थना के बिना ही रहना होगा। मैंने अब तक बहुत सहा है, अब तुम सहो।

उससे इसी तरह बात करो जैसे कोई अपने प्रेमी या मित्र या मां के साथ बातचीत करता है। उससे ऐसे बात करो जैसे कोई छोटे बच्चे के साथ बात सकता है। मैं एक परिवार के साथ ठहरा हुआ था, और वहां मां ने अपने छोटे बच्चे को प्रार्थना करने का आदेश दिया। वह बच्चा अभी सोने के लिए बिस्तरे पर जाने के लिए तैयार नहीं था और वह कुछ देर और मेरे पास रहना चाहता था। उसकी प्रार्थना करने में भी कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन वह परिवार बहुत अधिक अनुशासन प्रेमी था इसलिए उन्होंने उससे कहा—’‘ अब नौ बज गये हैं। तुम सोने के लिए जाओ, और देखो, प्रार्थना करना भूल मत जाना।’’

मैं देख सकता था कि वह बहुत नाराज था। वह अपने कमरे में गया। मैंने केवल यह सुनने के लिए ही, कि वह कैसी प्रार्थना करने जा रहा है, उसका चुपके से पीछा गया। अंधेरे में मैंने उसे यह कहते हुए सुना—’‘ हे परमात्मा तू बुरे लोगों को अच्छा बना और अच्छे लोगों को बहुत अच्छा ''। वह जानता था कि उसके माता और पिता अच्छे तो हैं लेकिन वे बहुत अधिक अच्छे नहीं हैं।

मैंने एक अन्य दूसरे बच्चे के बारे में भी सुना है। मैं एक परिवार के साथ एक अतिथि गृह में ठहरा हुआ था। पहली रात बच्चे ने प्रार्थना की। वह बच्चा सोते हुए हमेशा मद्धिम प्रकाश जलाये रखता था, लेकिन उस रात बिजली चले जाने से गहन अंधकार था। उसके प्रार्थना प्रारम्भ करते ही बिजली चली गई थी। वह बिस्तरे से उठकर अपनी मां से बोला—’‘ अब मुझे फिर से और अधिक सावधानी से प्रार्थना करनी होगी क्योंकि रात और अधिक अंधेरी होती जा रही है।’’ पहले तो उसने कामचलाऊ औपचारिक प्रार्थना की थी, लेकिन अब चूंकि रात अंधरी हो गई थी और वहां कोई प्रकाश भी न था, इसलिए वह अधिक भयभीत था। उसने कहा— '' मुझे अब फिर से प्रार्थना करनी होगी। मुझे फिर बिस्तरे से उठकर कहीं अधिक सावधानी से प्रार्थना करनी होगी क्योंकि अब यहां कहीं अधिक खतरा है।’’

एक बच्चे बनकर ही बच्चों की प्रार्थनाएं सुनो।
सभी धर्म कहते हैं कि परमात्मा परमपिता है। वास्तव में जोर इस बात पर होना चाहिए कि मनुष्य एक बच्चे की भांति है। जब हम परमात्मा को परमपिता कहते हैं तो उसका असली अर्थ यही है। लेकिन हम लोग यह भूल गए है— परमात्मा परमपिता है, लेकिन हम लोग उसके बच्चे नहीं हैं। इसे भूल जाओ कि वह तुम्हारा पिता है अथवा नहीं, तुम बस एक छोटे बच्चे की भांति हो जाओ—सहज, स्वाभाविक सच्चे और प्रामाणिक। मुझसे या किसी दूसरे से भी यह पूछो ही मत कि प्रार्थना कैसे की जाये? क्षण को ही यह तय करने दो, यह क्षण ही निर्णायक होगा और उस क्षण का सत्य ही तुम्हारी प्रार्थना होनी चाहिए।
यही मेरा उत्तर है उस क्षण का सत्य, वह चाहे जो भी हो, जैसा भी हो, बिना शर्त तुम्हारी प्रार्थना बन जाना चाहिए। और एक बार उस क्षण का सत्य तुम्हारी सम्पत्ति बन जाता है, तुम विकसित होना शुरू हो जाओगे और तुम तभी प्रार्थना के अतुलित सौंदर्य को जानोगे। तुम पथ में प्रविष्ट हो चुके हो। लेकिन यदि तुम केवल एक ही प्रार्थना एक ही विधि से दोहराते चले जाओगे तब तुम चूक जाओगे। तुम पथ में कभी प्रविष्ट ही न हो सकोगे, और तुम केवल उससे बाहर ही बने रहोगे।


शून्य

शून्य
ध्यान शून्य लाता है। अगर तुमने जल्दबाजी की तो शून्य को भरने की तृष्णा पैदा होगी। अगर जल्दबाजी न की और तुम शून्य के साथ रहने को राजी हो गए, तुमने उसे स्वीकार कर लिया, तो तुम पाओगे धीरे-धीरे शून्य अपने आप भर दिया गया। क्योंकि प्रकृति शून्य को बरदाश्त नहीं करती; शून्य तुम करो, भर देती है प्रकृति। न परमात्मा शून्य को बरदाश्त करता है। तुम शून्य पैदा करो, परमात्मा भर देता है।

 शून्य भर चाहिए, पूर्ण तो उतर आता है। जैसे कहीं गङ्ढा हो, वर्षा हो, तो सारा पानी चारों तरफ से दौड़ कर गङ्ढे में भर जाता है। ऐसे ही तुम जब शून्य होते हो, परमात्मा चारों तरफ से तुम्हारी तरफ दौड़ने लगता है। तुमने गङ्ढा बना दिया, अब भरना उसे है। आधा तुम करते हो, आधा परमात्मा करता है। और तुम्हारा करना कुछ खास नहीं, असली करना तो उसी का है। तुम्हारा करना इतना ही है कि तुम खाली होने को राजी हो जाओ। इसलिए सारे बुद्धपुरुष–भरने की तृष्णा से बचो, बटोरने की तृष्णा से बचो–इसका इतना आग्रह करते हैं। क्योंकि अगर तुमने स्वयं ही भर लिया, तो तुम परमात्मा को भरने का मौका ही नहीं देते हो।
💦ओशो 💦

एक ध्यान प्रयोग

एक ध्यान प्रयोग
आराम से सुखासन में बैठ जाएँ | रीढ़ की हड्डी सीधी तनी हुई नहीं | आँखें बंद कर लें |
कल्पना करें कि आप हिमालय में हैं | चारो तरफ बर्फ के पर्वत | कल कल करती हुई गंगा बह रही है | ऐसा मानस पटल पर कल्पना में देखें | ( दो मिनट तक )चारो तरफ पर्वतों से घिरी हुई बीच में घाटियों के मध्य गंगा बह रही है कल्पना करें | ( दो मिनट तक ) गंगा को थोडा नजदीक से देखें | ( दो मिनट तक )
अपने आप को बहती हुई गंगा के बीच उपर में ( करीब दस फुट उपर ) शून्य में आसन लगाए हुए देखें | ( दो मिनट तक ) गंगा के उपर जहाँ आप आसन लगा कर बैठे हुए हैं वहां से चारो तरफ पर्वतों की सुन्दरता को निहारें कल्पना में ( पांच मिनट तक ) इन सबके उपरान्त मन हीं मन ॐ का मानसिक जाप करें |
जब तक ईच्छा हो इस ध्यान में बने रहें | ध्यान का एक उदेश्य आनन्द की प्राप्ति भी है इस ध्यान को करने के बाद आप तरो ताज़ा मह्शूश करेंगे और मन में आनन्द भी बना रहेगा |

देह शून्यता की साधना

देह शून्यता की साधना

सारे शरीर को शिथिल छोड़कर, प्रत्येक चक्र पर सुझाव देकर शरीर को शिथिल छोड़कर, अंधकार करके कमरे में, ध्यान में प्रवेश करें। जब शरीर शिथिल हो जाए, जब श्वास शिथिल हो जाए और जब चित्त शांत हो जाए, तो एक भावना करें कि आप मर गए हैं, आपकी मृत्यु हो गयी है। और स्मरण करें अपने भीतर कि अगर मैं मर गया हूं, तो मेरे कौन से प्रियजन मेरे आस-पास इकट्ठे हो जाएंगे! उनके चित्रों को अपने आस-पास उठते हुए देखें। वे क्या करेंगे, उनमें कौन रोएगा, कौन चिल्लाएगा, कौन दुखी होगा, उन सबको बहुत स्पष्टता से देखें। वे सब आपको दिखायी पड़ने लगेंगे।

फिर देखें कि मुहल्ले-पड़ोस के और सारे प्रियजन इकट्ठे हो गए और उन्होंने लाश को आपकी उठाकर अब अर्थी पर बांध दिया है। उसे भी देखें। और देखें कि अर्थी भी चली और लोग उसे लेकर चले। और उसे मरघट तक पहुंच जाने दें। और उन्हें उसे चिता पर भी रखने दें।

यह सब देखें। यह पूरा इमेजिनेशन है, यह पूरी कल्पना है। इस पूरी कल्पना को अगर थोड़े दिन प्रयोग करें, तो बहुत स्पष्ट देखेंगे। और फिर देखें, उन्होंने चिता पर आपकी लाश को भी रख दिया। और लपटें उठी हैं और आपकी लाश विलीन हो गयी।

जब यह कल्पना इस जगह पहुंचे कि लाश विलीन हो गयी और धुआं उड़ गया आकाश में और लपटें हवाएं हो गयी हैं और राख पड़ी है, तब एकदम से सजग होकर अपने भीतर देखें कि क्या हो रहा है! उस वक्त आप अचानक पाएंगे, आप देह नहीं हैं। उस वक्त तादात्म्य एकदम टूटा हुआ हो जाएगा।

इस प्रयोग को अनेक बार करने पर जब आप उठ आएंगे प्रयोग करने के बाद भी, चलेंगे, बात करेंगे, और आपको पता लगेगा, आप देह नहीं हैं। इस अवस्था को हमने विदेह कहा है–इस अवस्था को। इस प्रक्रिया के माध्यम से जो जानता है अपने को, वह विदेह हो जाता है।

अगर यह चौबीस घंटे सध जाए और आप चलें, उठें-बैठें, बात करें और आपको स्मरण हो कि आप देह नहीं हैं, तो देह शून्य हो गयी। तो यह देह शून्य हो जाना अदभुत है। यह अदभुत है, इससे अदभुत कोई घटना नहीं है। देह का तादात्म्य टूट जाना सबसे अदभुत है।

देह-शुद्धि, विचार-शुद्धि और भाव-शुद्धि के बाद जब देह की शून्यता का यह प्रयोग करेंगे, तो यह निश्चित सफल हो जाता है। और तब जीवन में बड़े अदभुत परिवर्तन होने शुरू हो जाते हैं। आपकी सारी भूलें और सारे पाप देह से बंधे हुए हैं। आपने जीवन में एक भी भूल और एक भी पाप नहीं किया होगा, जो देह से बंधा हुआ न हो। और अगर आपको स्मरण हो जाए कि आप देह नहीं हैं, तो जीवन से कोई भी विकृति के उठने की संभावना शून्य हो जाएगी।

तब अगर कोई आपको तलवार भोंक दे, तो आप देखेंगे, उसने देह में तलवार भोंक दी और आपको कुछ भी पता नहीं चलेगा कि आपको कुछ हुआ। आप अस्पर्शित रह जाएंगे। उस वक्त आप कमल के पत्ते की तरह पानी में होंगे। उस वक्त, जब देह-शून्यता का बोध होगा, तब आप स्थितप्रज्ञ की भांति जीवन में जीएंगे। तब बाहर के कोई आवर्त और बाहर के कोई तूफान और आंधियां आपको नहीं छू सकेंगी, क्योंकि वे केवल देह को छूती हैं। उनके संघात केवल देह तक होते हैं, उनकी चोटें केवल देह तक पड़ती हैं। लेकिन भूल से हम समझ लेते हैं कि वे हम पर पड़ीं, इसलिए हम दुखी और पीड़ित और सुखी और सब होते हैं।
यह आंतरिक साधना का, केंद्रीय साधना का पहला चरण है। हम देह-शून्यता को साधें। यह सध जाना कठिन नहीं है। जो प्रयास करते हैं, वे निश्चित सफल हो जाते हैं।
ध्यान सूत्र ओशो


कौन हैं शिव

कौन हैं शिव..

शिव संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, कल्याणकारी या शुभकारी। यजुर्वेद में शिव को शांतिदाता बताया गया है। 'शि' का अर्थ है, पापों का नाश करने वाला, जबकि 'व' का अर्थ देने वाला यानी दाता।

*क्या है शिवलिंग...???*

शिव की दो काया है। एक वह, जो स्थूल रूप से व्यक्त किया जाए, दूसरी वह, जो सूक्ष्म रूपी अव्यक्त लिंग के रूप में जानी जाती है। शिव की सबसे ज्यादा पूजा लिंग रूपी पत्थर के रूप में ही की जाती है। लिंग शब्द को लेकर बहुत भ्रम होता है। संस्कृत में लिंग का अर्थ है चिह्न। इसी अर्थ में यह शिवलिंग के लिए इस्तेमाल होता है। शिवलिंग का अर्थ है : शिव यानी परमपुरुष का प्रकृति के साथ समन्वित-चिह्न।

*शिव, शंकर, महादेव...*

शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं - शिव शंकर भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। शिव ने सृष्टि की स्थापना, पालना और विनाश के लिए क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और महेश (महेश भी शंकर का ही नाम है) नामक तीन सूक्ष्म देवताओं की रचना की है। इस तरह शिव ब्रह्मांड के रचयिता हुए और शंकर उनकी एक रचना। भगवान शिव को इसीलिए महादेव भी कहा जाता है। इसके अलावा शिव को 108 दूसरे नामों से भी जाना और पूजा जाता है।

*अर्द्धनारीश्वर क्यों...???*

शिव को अर्द्धनारीश्वर भी कहा गया है, इसका अर्थ यह नहीं है कि शिव आधे पुरुष ही हैं या उनमें संपूर्णता नहीं। दरअसल, यह शिव ही हैं, जो आधे होते हुए भी पूरे हैं। इस सृष्टि के आधार और रचयिता यानी स्त्री-पुरुष शिव और शक्ति के ही स्वरूप हैं। इनके मिलन और सृजन से यह संसार संचालित और संतुलित है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। नारी प्रकृति है और नर पुरुष। प्रकृति के बिना पुरुष बेकार है और पुरुष के बिना प्रकृति। दोनों का अन्योन्याश्रय संबंध है। अर्धनारीश्वर शिव इसी पारस्परिकता के प्रतीक हैं। आधुनिक समय में स्त्री-पुरुष की बराबरी पर जो इतना जोर है, उसे शिव के इस स्वरूप में बखूबी देखा-समझा जा सकता है। यह बताता है कि शिव जब शक्ति युक्त होता है तभी समर्थ होता है। शक्ति के अभाव में शिव 'शिव' न होकर 'शव' रह जाता है।

*नीलकंठ क्यों...???*

अमृत पाने की इच्छा से जब देव-दानव बड़े जोश और वेग से मंथन कर
रहे थे, तभी समुद से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएं जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। देवताओं और दैत्यों सहित ऋषि, मुनि, मनुष्य, गंधर्व और यक्ष आदि उस विष की गरमी से जलने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर, भगवान शिव विषपान के लिए तैयार हो गए। उन्होंने भयंकर विष को हथेलियों में भरा और भगवान विष्णु का स्मरण कर उसे पी गए। भगवान विष्णु अपने भक्तों के संकट हर लेते हैं। उन्होंने उस विष को शिवजी के कंठ (गले) में ही रोक कर उसका प्रभाव खत्म कर दिया। विष के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया और वे संसार में नीलकंठ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

*भोले बाबा*

शिव पुराण में एक शिकारी की कथा है। एकबार उसे जंगल में देर हो गई। तब उसने एक बेल वृक्ष पर रात बिताने का निश्चय किया। जगे रहने के लिए उसने एक तरकीब सोची। वह सारी रात एक-एक पत्ता तोड़कर नीचे फेंकता रहा। कथानुसार, बेल के पत्ते शिव को बहुत प्रिय हैं। बेल वृक्ष के ठीक नीचे एक शिवलिंग था। शिवलिंग पर प्रिय पत्तों का अर्पण होते देख शिव प्रसन्न हो उठे, जबकि शिकारी को अपने शुभ काम का अहसास न था। उन्होंने शिकारी को दर्शन देकर उसकी मनोकामना पूरी होने का वरदान दिया। कथा से यह साफ है कि शिव कितनी आसानी से प्रसन्न हो जाते हैं। शिव महिमा की ऐसी कथाओं और बखानों से पुराण भरे पड़े हैं।

 *शिव स्वरूप*

भगवान शिव का रूप-स्वरूप जितना विचित्र है, उतना ही आकर्षक भी। शिव जो धारण करते हैं, उनके भी बड़े व्यापक अर्थ हैं :

*जटाएं :*
शिव की जटाएं अंतरिक्ष का प्रतीक हैं।

*चंद्र :*
चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन चांद की तरह भोला, निर्मल, उज्ज्वल और जाग्रत है।

*त्रिनेत्र :*
शिव की तीन आंखें हैं। इसीलिए इन्हें त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव की ये आंखें सत्व, रज, तम (तीन गुणों), भूत, वर्तमान, भविष्य (तीन कालों), स्वर्ग, मृत्यु पाताल (तीनों लोकों) का प्रतीक हैं।

*सर्पहार :*
सर्प जैसा हिंसक जीव शिव के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक जीव है, जिसे शिव ने अपने वश में कर रखा है।

*त्रिशूल :* शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशूल भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।

*डमरू :*
शिव के एक हाथ में डमरू है, जिसे वह तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्मा रूप है।

*मुंडमाला :*
शिव के गले में मुंडमाला है, जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में किया हुआ है।

*छाल :*
शिव ने शरीर पर व्याघ्र चर्म यानी बाघ की खाल पहनी हुई है। व्याघ्र हिंसा और अहंकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा और अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।

*भस्म :*
 शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से किया जाता है। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है।

*वृषभ :*
शिव का वाहन वृषभ यानी बैल है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ धर्म का प्रतीक है। महादेव इस चार पैर वाले जानवर की सवारी करते हैं, जो बताता है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनकी कृपा से ही मिलते हैं।

इस तरह शिव-स्वरूप हमें बताता है कि उनका रूप विराट और अनंत है, महिमा अपरंपार है। उनमें ही सारी सृष्टि समाई हुई है।

*महामृत्युंजय मंत्र*

शिव के साधक को न तो मृत्यु का भय रहता है, न रोग का, न शोक का। शिव तत्व उनके मन को भक्ति और शक्ति का सामर्थ्य देता है। शिव तत्व का ध्यान महामृत्युंजय मंत्र के जरिए किया जाता है। इस मंत्र के जाप से भगवान शिव की कृपा मिलती है। शास्त्रों में इस मंत्र को कई कष्टों का निवारक बताया गया है।
यह मंत्र यों हैं : *_ओम् त्र्यम्बकं यजामहे, सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनात्, मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।*_

*(भावार्थ : हम भगवान शिव की पूजा करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो हर श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं और पूरे जगत का पालन-पोषण करते हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे हमें मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर दें, ताकि मोक्ष की प्राप्ति हो जाए, उसी उसी तरह से जैसे एक खर बूजा अपनी बेल में पक जाने के बाद उस बेल रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है।)
ॐ नमः शिवाय्:

सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा

सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा

तुमने कभी गौर किया, बाएं हाथ का उपयोग करने वाले लोगों को दबा दिया जाता है! अगर कोई बच्चा बाएं हाथ से लिखता है, तो तुरंत पूरा समाज उसके खिलाफ हो जाता है माता पिता, सगे संबंधी, परिचित, अध्यापक सभी लोग एकदम उस बच्चे के खिलाफ हो जाते हैं। पूरा समाज उसे दाएं हाथ से लिखने को विवश करता है। दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है। कारण क्या है? ऐसा क्यों है कि दायां हाथ सही है और बायां हाथ गलत है? बाएं हाथ में ऐसी कौन सी बुराई है, ऐसी कौन सी खराबी है? और दुनिया में दस प्रतिशत लोग बाएं हाथ से काम करते हैं। दस प्रतिशत कोई छोटा वर्ग नहीं है। दस में से एक व्यक्ति ऐसा होता ही है जो बाएं हाथ से कार्य करता है। शायद चेतनरूप से उसे इसका पता भी नहीं होता हो, वह भूल ही गया हो इस बारे में, क्योंकि शुरू से ही समाज, घर परिवार, माता पिता बाएं हाथ से कार्य करने वालों को दाएं हाथ से कार्य करने के लिए मजबूर कर देते हैं। ऐसा क्यों है?

दायां हाथ सूर्यकेंद्र से, भीतर के पुरुष से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ चंद्रकेंद्र से भीतर की स्त्री से जुड़ा हुआ है। और पूरा का पूरा समाज पुरुषकेंद्रित है।
हमारा बायां नासापुट चंद्रकेंद्र से जुड़ा हुआ है। और दायां नासापुट सूर्यकेंद्र से जुड़ा हुआ है। तुम इसे आजमा कर भी देख सकते हो। जब कभी बहुत गर्मी लगे तो अपना दायां नासापुट बंद कर लेना और बाएं से श्वास लेना और दस मिनट के भीतर ही तुमको ऐसा लगेगा कि कोई अनजानी शीतलता तुम्हें महसूस होगी। तुम इसे प्रयोग करके देख सकते हो, यह बहुत ही आसान है। या फिर तुम ठंड से कांप रहे हो और बहुत सर्दी लग रही है, तो अपना बायां नासापुट बंद कर लेना, और दाएं से श्वास लेना; दस मिनट के भीतर तुम्हें पसीना आने लगेगा।

योग ने यह बात समझ ली और योगी कहते हैं और योगी ऐसा करते भी हैं प्रात: उठकर वे कभी दाएं नासापुट से श्वास नहीं लेते। क्योंकि अगर दाएं नासापुट से श्वास ली जाए, तो अधिक संभावना इसी बात की है कि दिन में व्यक्ति क्रोधित रहेगा, लड़ेगा झगड़ेगा, आक्रामक रहेगा शांत और थिर नहीं रह सकेगा। इसलिए योग के अनुशासन में यह भी एक अनुशासन है कि सुबह उठते ही सबसे पहले व्यक्ति को यह देखना होता है कि उसका कौन सा नासापुट क्रियाशील है। अगर बायां क्रियाशील है तो ठीक है, .वही ठीक क्षण होता है बिस्तर से बाहर आने का। अगर बायां नासापुट क्रियाशील नहीं है तो अपना दायां नासापुट बंद करना और बाएं से श्वास लेना। धीरे धीरे जब बायां नासापुट क्रियाशील हो जाए, तभी बिस्तर से बाहर पाव रखना।

हमेशा सुबह उसी समय बिस्तर से बाहर आना जब बायां नासापुट क्रियाशील हो, और तब तुम पाओगे कि तुम्हारी पूरी की पूरी दिनचर्या में अंतर आ गया है। तुम कम क्रोधित होगे, चिड़चिडाहट कम होगी और अधिकाधिक शांत, थिर और ठंडे अनुभव करोगे। ध्यान में अधिक गहरे जा सकोगे। अगर लड़ना झगड़ना चाहते हो, तो उसके लिए दायां नासापुट अच्छा है। अगर प्रेमपूर्ण होना चाहते हो, तो उसके लिए बायां नासापुट एकदम ठीक है।

और हमारी श्वास हर क्षण, हर पल बदलती रहती है। तुमने शायद कभी ध्यान नहीं दिया होगा, लेकिन इस पर ध्यान देना। आधुनिक चिकित्साशास्त्र को इसे समझना होगा, क्योंकि रोगी के इलाज में इसका प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। ऐसे बहुत से रोग हैं, ऐसी बहुत सी बीमारियां हैं, जिनके ठीक होने में चंद्र की मदद मिल सकती है। और ऐसे रोग भी हैं जिनके ठीक होने में सूर्य से मदद मिल सकती है। अगर इस बारे में ठीक ठीक मालूम हो, तो श्वास का उपयोग व्यक्ति. के इलाज के लिए किया जा सकता है। लेकिन आधुनिक चिकित्साशास्त्र की अभी तक इस तथ्य से पहचान नहीं हुई है।

श्वास निस्तर परिवर्तित होती रहती है. चालीस मिनट तक एक नासापुट क्रियाशील रहता है, फिर चालीस मिनट दूसरा नासापुट क्रियाशील रहता है। भीतर सूर्य और चंद्र निरंतर बदलते रहते हैं। हमारा पेंडुलम सूर्य से चंद्र की ओर, चंद्र से सूर्य की ओर आताजाता रहता है। इसीलिए हमारी भावदशा अकसर ही बदलती रहती है। कई बार अकस्मात चिडचिडाहट होती है बिना किसी कारण के, अकारण ही। बात कुछ भी नहीं है, सभी कुछ वैसा का वैसा है, उसी कमरे में बैठे हो कुछ भी नहीं हुआ है अचानक चिड़चिड़ाहट आने लगती है।

थोड़ा ध्यान देना। अपने हाथ को अपने नाक के निकट ले आना और उसे अनुभव करना. तुम्हारी श्वास बायीं ओर से दायीं ओर चली गयी होगी। अभी थोड़ी देर पहले तो सभी कुछ ठीक था, और क्षण भर के बाद ही सभी कुछ बदल गया, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। बस, लड़ने को, झगड़ने को और कुछ भी करने के लिए तैयार हो।

ध्यान रहे, हमारा पूरा शरीर दो भागों में विभक्त है। हमारा मस्तिष्क भी दो मस्तिष्कों में विभाजित है। हमारे पास एक मस्तिष्क नहीं है; दो मस्तिष्क हैं, दो गोलार्ध  हैं। बायीं ओर का मस्तिष्क सूर्य मस्तिष्क है, दायीं ओर का मस्तिष्क चंद्र मस्तिष्क है। तुम थोडी उलझन में पड़ सकते हो, क्योंकि ऐसे तो बायीं ओर सब कुछ चंद्र से संबंधित होता है, तो फिर दायीं ओर के मस्तिष्क का चंद्र से क्या संबंध! दायीं ओर का मस्तिष्क शरीर के बाएं हिस्से से जुड़ा हुआ है। बाया हाथ दायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है, दायां हाथ बायीं ओर के मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है, यही कारण है। वे एक दूसरे से उलटे जुडे हुए हैं।
दायीं ओर का मस्तिष्क कल्पना को, कविता को, प्रेम को, अंतर्बोध को जन्म देता है। मस्तिष्क का बाया हिस्सा बुद्धि को, तर्क को, दर्शन को, सिद्धांत को, विज्ञान को जन्म देता है।

और जब तक व्यक्ति सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा के बीच संतुलन नहीं पा लेता है, अतिक्रमण संभव नहीं है। और जब तक बाया मस्तिष्क दाएं मस्तिष्क से नहीं मिल जाता है और उनमें एक सेतु निर्मित नहीं हो जाता है, तब तक सहस्रार तक पहुंचना संभव नहीं है। सहस्रार तक पहुंचने के लिए दोनों ऊर्जाओं का एक हो जाना आवश्यक है, क्योंकि सहस्रार परम शिखर है, आत्यंतिक बिंदु है। वहां न तो पुरुष की तरह पहुंचा जा सकता है, न ही वहा स्त्री की तरह पहुंचा जा सकता है। वहा एकदम शुद्ध चैतन्य की तरह होकर, समग्र और संपूर्ण होकर पहुंचना संभव होता है।

पुरुष की कामवासना सूर्यगत है, स्त्री की कामवासना चंद्रगत है। इसीलिए स्त्रियों के मासिक धर्म का चक्र अट्ठाइस दिन का होता है, क्योंकि चंद्र का मास अट्ठाइस दिन में पूरा होता है। स्त्रियां चंद्रमा से प्रभावित होती हैं चंद्र का वर्तुल अट्ठाइस दिन का होता है।
और इसीलिए बहुत सी स्त्रिया पूर्णिमा की रात थोड़ा पागलपन का अनुभव करती हैं। जब पूर्णिमा की रात आए, तो अपनी पत्नी या अपनी प्रेयसी से सावधान रहना। वह थोड़ी परेशान और अस्तव्यस्त हो जाती है। जैसे पूर्णिमा की रात समुद्र में ज्वार भाटा आने लगता है और समुद्र प्रभावित हो जाता है, ऐसे स्त्रियां भी उत्तप्त हो जाती हैं।

क्या तुमने कभी ध्यान दिया है? पुरुष खुली आंखों से प्रेम करना चाहता है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि प्रकाश भी पूरा चाहता है। अगर किसी तरह की बाधा न हो, तो पुरुष दिन में प्रेम करना पसंद करता है। और उन्होंने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है विशेषकर ‘अमेरिका में, क्योंकि उस तरह की बाधाएं और समस्याएं अब वहां पर समाप्त हो गयी हैं। वहा लोग रात्रि की अपेक्षा सुबह प्रेम अधिक करते हैं। स्त्री अंधकार में प्रेम करना पसंद करती है, जहां थोड़ी भी रोशनी न हो और अंधेरे में भी वे अपनी आंखें बंद कर लेती हैं।

चंद्रमा रात्रि में, अंधकार में चमकता है, उसे अंधकार से प्रेम है रात्रि से।
इसीलिए स्त्रियां अश्लील साहित्य में उत्सुक नहीं हैं। अब नारी मुक्ति आंदोलन के कारण, कुछ पत्रिकाओं ने प्लेबाय और इसी तरह की पत्रिकाओं के साथ प्रतिस्पर्धा की शुरुआत की है इसी प्रतिस्पर्धा के कारण प्लेगर्ल पत्रिका सामने आयी है। लेकिन मूल रूप से स्त्रियां अश्लील साहित्य में, अश्लील पत्रिकाओं में जरा भी उत्सुक नहीं होतीं। असल में तो स्त्रियों को यह समझ ही नहीं आता है कि आखिर पुरुष क्यों इतना अधिक नग्न स्त्रियों के चित्र देखने में उत्सुक रहता है। इस तथ्य को समझने में उन्हें कठिनाई अनुभव होती है।

पुरुष सूयोंमुन्धी होता है, उसे प्रकाश अच्छा लगता है। आंखें सूर्य का हिस्सा हैं, इसीलिए आंखें देखने में सक्षम होती हैं। आंखों का तालमेल सूर्य ऊर्जा के साथ रहता है। तो पुरुष आंखों से, दृष्टि से अधिक जुड़ा हुआ है। इसीलिए पुरुष को देखना अच्छा लगता है और स्त्री को प्रदर्शन करना अच्छा लगता है। पुरुषों को यह समझ में ही नहीं आता है कि आखिर स्त्रियां स्वयं को इतना क्यों सजाती संवारती हैं?

मैंने सुना है, एक दंपति हनीमून मनाने के लिए किसी पहाड़ी स्थान पर गए। युवक बिस्तर पर लेटा हुआ पत्नी की प्रतीक्षा कर रहा था। और पत्नी थी कि अपने श्रृंगार करने में लगी हुई थी, अपने को सजाने संवारने में लगी हुई थी। उसने अपने शरीर पर पाउडर लगाया, बाल संवारे, नाखूनों पर नेल पालिश लगाई, इत्र की कुछ बूंदें कान के पीछे लगाई, बस वह अपने को सजाती ही जा रही थी। आखिरकार जब उस युवक से न रहा गया, तो वह बिस्तर से झटके से उठकर खड़ा हो गया। पत्नी ने पूछा, क्या बात है? आप कहां जा रहे हो? वह अपने सूटकेस की तरफ दौड़ा और बोला, अगर यह एक औपचारिक प्रेम ही रहने वाला है तो कम से कम मैं अपने कपड़े तो पहन लूं।

स्त्रियों में प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है वे चाहती हैं कोई उन्हें देखे। और यह एकदम ठीक भी है, क्योंकि इसी तरह से तो पुरुष और स्त्रियां एक दूसरे के अनुकूल बैठ पाते हैं पुरुष देखना चाहता है, स्त्री दिखाना चाहती है। वे एक दूसरे के अनुरूप हैं, यह एकदम ठीक है। अगर स्त्रियों को प्रदर्शन में उत्सुकता न होगी, तो वे दूसरी कई मुसीबत खड़ी कर देती हैं। और अगर पुरुष स्त्री को देखने में उत्सुक नहीं है, तो फिर स्त्री किसके लिए इतना श्रृंगार करेगी, आभूषण पहनेगी, सजेगी संवरेगी आखिर किसके लिए? फिर तो कोई भी उनकी तरफ नहीं देखेगा। प्रकृति में हर चीज एक दूसरे के अनुरूप होती है, उनमें आपस में सिन्क्रानिसिटी, लयबद्धता होती है।

लेकिन अगर सहस्रार तक पहुंचना हो, तो द्वैत को गिराना होगा। परमात्मा तक पुरुष या स्त्री की भांति नहीं पहुंचा जा सकता है। परमात्मा तक तो सहज रूप में, शुद्ध अस्तित्व के रूप में ही पहुंचा जा सकता है, स्त्री और पुरुष के रूप में नहीं।
‘सिर के शीर्ष भाग के नीचे की ज्योति पर संयम केंद्रित करने से समस्त सिद्धों के अस्तित्व से जुड्ने की क्षमता मिल जाती है।

ऊर्जा को अगर ऊपर की ओर गतिमान करना है, तो इसकी विधि संयम है। पहली बात, अगर तुम पुरुष हो तो तुम्हें तुम्हारे सूर्य के प्रति तुम्हारे सूर्य ऊर्जा के केंद्र के प्रति, तुम्हारे काम केंद्र के प्रति, पूरी तरह होशपूर्ण होना होगा। तुम्हें मूलाधार में रहना होगा, अपने संपूर्ण चैतन्य को, अपनी पूरी ऊर्जा को मूलाधार पर बरसा देना होगा। जब मूलाधार पर पूरा होश आ जाता है तो तुम पाओगे कि ऊर्जा हारा केंद्र की ओर उठ रही है, चंद्र की ओर बढ़ रही है।

और जब ऊर्जा चंद्रकेंद्र की ओर गतिमान होगी, तो तुम बहुत संतृप्ति, बहुत आनंदित अनुभव करोगे। सारी कामवासना के आनंद इसकी तुलना में कुछ भी नहीं हैं कुछ भी नहीं हैं। जब सूर्य ऊर्जा अपनी ही चंद्रऊर्जा में उतरती है, तो उस आनंद की सघनता उससे हजारों गुना अधिक होती है। तब सच में पुरुष और स्त्री का मिलन घटित होता है। बाहर किसी भी स्त्री से कितनी भी निकटता क्यों न हो, कितने भी करीब क्यों न हो, तुम अपने को पृथक और अलग ही अनुभव करते हो। बाहर का मिलन तो बस सतही और औपचारिक ही होता है दो सतह, दो परिधियां ही आपस में मिलती हैं। दो सतह एक दूसरे को स्पर्श करती हैं, बस इतना ही होता है। लेकिन जब सूर्यऊर्जा चंद्रऊर्जा की ओर गतिमान होती है, तब दो ऊर्जा केंद्रों की ऊर्जा आपस में मिल जाती है और जिस व्यक्ति के सूर्य और चंद्र एक हो जाते हैं, वह परम रूप से आनंदित और संतृप्त हो जाता है और फिर वह हमेशा आनंदित और संतृप्त बना रहता है, क्योंकि इसको खोने का कोई उपाय ही नहीं है। यह आनंद और मिलन सनातन है।

अगर तुम स्त्री हो तो तुम्हें अपनी संपूर्ण चेतना को हारा तक ले आना होगा, और तब तुम्हारी ऊर्जा सूर्य केंद्र की ओर बढ़ने लगेगी।
प्रत्येक व्यक्ति में एक केंद्र निष्किय होता है और एक केंद्र सक्रिय होता है। सक्रिय केंद्र को निष्किय केंद्र के साथ जोड़ दो, तो निष्‍क्रिय केंद्र सक्रिय हो जाता है।
और जब दोनों ऊर्जाओं का मिलन होता है जब सूर्यऊर्जा और चंद्रऊर्जा एक हो रहे होते हैं, तो ऊर्जा ऊपर की ओर उठती है। तब व्यक्ति ऊर्ध्वगमन की ओर बढ़ने लगता है।
ओशो

मृत्यु से डर

मुझे मृत्यु से डर लगता है
*मुझे मृत्यु से डर लगता है, इस विषय में सोचता भी हूँ तो रोम-रोम कम्पन्न करने लगता है..! क्या करूँ..?*

जो जन्मा है उसे मरना पड़ेगा, जिस चीज का एक छोर है, उसका दूसरा छोर भी होगा..!अगर मृत्यु का भय लगता है तो जीवन को जानने की कोशिश करो और कोई उपाय नहीं है..!मृत्यु का भय इस बात का सबूत है कि तुम्हें अब तक जीवन का कोई अनुभव नहीं हुआ..!जीवन के अनुभव के लिए ध्यान को समझो, ध्यान केवल आसनों के अभ्यास तक ही सीमित नहीं है, ध्यान जीवन के पूर्ण रूपांतरण से जुड़ा है..!

*कुछ ध्यान के वास्तविक अर्थ के बारे में…*
सच्ची खुशहाली को अनुभव करने का सिर्फ एक ही तरीका है- अपने भीतर की ओर मुड़ना..!ध्यान का यही अर्थ है- ऊपर नहीं, बाहर नहीं, बल्कि अंदर, बाहर निकलने की एकमात्र राह अंदर की ओर है..! ध्यान का संबंध जीवन में सशक्‍त व सबल होकर जीने से है, सिर्फ सब्जियां खाने, खुद को तोड़ने-मरोड़ने, या अपनी आंखें बंद करना भर नहीं है..!ध्यान का अर्थ है- जीवन की चक्रीय प्रक्रिया को तोड़कर इसे एक सीधी रेखा बनाना, हमारे मस्तिष्क की गतिविधियां, हमारे शरीर की केमेस्ट्री, यहां तक कि हमारे वंशानुगत गुण भी ध्यानाभ्यास से बदले जा सकते हैं..!ध्यानयोग इस बारे में है कि हम अपनी पूंजी को शरीर, दिमाग और भावनाओं से हटाकर अपनी अन्तरात्मा में लगाएं, कल्पना से हटाकर वास्तविकता में लाये..!आदमी मरता है, औरत मरती है, बच्चा मरता है, जवान मरता है, जो-जो चीजें मरती हैं उनसे अपने को अलग कर लो...और रोज एक घंटे के लिए कोशिश करो अपने भीतर खोजने की, कि क्या कुछ और भी है इन सब चीजों के अलावा..? हजारों लोगों ने अनुभव किया है, निरपवाद रूप से कि तुम्हारे भीतर शाश्वत जीवन का झरना है, जिस दिन तुम्हें उसकी एक बूंद भी पीने को मिल जाएगी, उसी दिन मौत का भय मिट जाएगा..!यह मौत की अनुकंपा है तुम्हारे ऊपर कि वह तुम्हें चैन से नहीं बैठने देती, कभी न कभी खयाल दिला ही देती है कि मरना होगा,  बुढ़ापा आने लगा, कमजोरी आने लगी, अब दूसरी घड़ी में मौत के सिवाय और क्या है..?

इसके पहले कि मौत आए, तुम अमृत को पहचानने की थोड़ी-सी कोशिश करो..!

एक घंटा निकालो अपने लिए और एक घंटा चौबीस घंटे में से अपने लिए निकाल लेना कोई महंगा सौदा नहीं है, एक घंटा खींच लो, तेईस घंटे संसार को दे ही रहे हो, एक घंटा ईश्वर को दे देने में इतनी क्या कंजूसी..? ज्यादा देर नहीं लगेगी कि तुम ध्यान के संपर्क में आओ, अपने भीतर जहां अंतःसरिता की भांति अब भी जीवन गंगा बह रही है, इसके पहले कि वह सुख जाए, उससे परिचय बना लेना बेहद जरूरी है..! यही असली मौका है, चुनोती है, कसौटी है, अग्निपरीक्षा है अपने लिये एक घंटा निकालना-

मृत्यु का भय किसको नहीं लगता? हर आदमी यही सोचता है कि मौत हमेशा किसी और की होती है। और उसके तर्क में कुछ बात तो है, क्योंकि अपने को तो कभी मरते नहीं देखता। हमेशा औरों को मरते देखता है। दूसरों की अर्थियों को मरघट तक पहुंचा आता है। नदी में स्नान करके प्रसन्न अपने घर लौट आता है हैरान होता हुआ कि मैं क्या अपवाद हूं। मरघट गांव के बाहर बनाए जाते हैं। बनाना चाहिए गांव के ठीक बीच में; ताकि हर आदमी रोज देखे कि कोई मर रहा है। और जो लाइन क्यू की उसने बना रखी थी, वह छोटी होती जा रही है। उसका नंबर भी अब करीब है। लेकिन हम गांव के बाहर बनाते हैं कि एक आदमी मर गया, बात भूलो, छोड़ो। कोई मरता है तो हम बच्चों को घर के भीतर खींच लेते हैं कि बच्चों को मृत्यु का पता न चले। लेकिन यूं धोखाधड़ी से काम तो न चलेगा। जो जन्मा है उसे मरना पड़ेगा। जिस चीज का एक छोर है, उसका दूसरा छोर भी होगा।
अगर मृत्यु का भय लगता है तो जीवन का जानने की कोशिश करो। और कोई उपाय नहीं है। मृत्यु का भय इस बात का सबूत है कि तुम्हें अब तक जीवन का कोई अनुभव नहीं हुआ।

मैंने तो सुना है कि बहुत लोग मरने के बाद ही जान पाते हैं कि हे राम! मैं इतने दिन जिंदा था। जिंदगी यूं ही गुजर जाती है फिजूल कामों में। कम से कम घड़ी भर अपने के लिए, अपने जीवन की खोज के लिए दो। एक घंटे भर के लिए कम से कम शांत बैठ  जाओ, मौन बैठ जाओ। भूल जाओ कि तुम हिंदू हो कि मुसलमान, जैन कि ईसाई। भूल जाओ कि आदमी हो कि औरत। भूल जाओ कि बच्चे कि जवान। भूल जाओ इस सारे जगत को। तो धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर से एक शाश्वत जीवन का अनुभव उभरने लगता है। हिंदू मरता है, मरना पड़ेगा उसे। आदमी मरता है, औरत मरती है, बच्चा मरता है, जवान मरता है, मुसलमान मरता है।

जो जो चीजें मरती हैं उनसे अपने को अलग कर लो एक घंटे के लिए रोज। और कोशिश करो अपने भीत खोजने की कि क्या कुछ और भी है इन सब चीजों के अलावा? और हजारों लोगों ने अनुभव किया है निरपवाद रूप से, कि तुम्हारे भीतर शाश्वत जीवन का झरना है। जिस दिन तुम्हें उसकी एक बूंद भी पीने को मिल जाएगी, उसी दिन मौत का भय मिट जाएगा।

यह मौत का भय अच्छा है। यह तुम्हें जगाए रखता है। अगर तुम्हारे भीतर मौत का भय न होता तो शायद दुनिया में बुद्ध महावीर, जैसे व्यक्ति के पैदा होने की कोई संभावना न थी। यह मौत की अनुकंपा है तुम्हारे ऊपर कि वह तुम्हें चैन से नहीं बैठने देती। कभी न कभी खयाल दिला देती है कि मरना होगा। यह बुढ़ापा आने लगा। अब दूसरी घड़ी में मौत के सिवाय और क्या है? इसके पहले कि मौत आए, तुम अमृत को पहचानने की थोड़ी-सी कोशिश करो।

और एक घंटा चौबीस घंटे में से अपने लिए निकाल लेना कोई महंगा सौदा नहीं है। बेवकूफियों के लिए तुम कितना समय निकालते हो! मैंने लोगों को देखा है ताश खेल रहे हैं। पूछो, क्या कर रहे हो? कहते हैं, समय काट रहे हैं। नालायकों! अपने को काट रहे हो कि समय काट रहे हो? समय को कौन काट सकता है? सिनेमा की तरफ भागे जा रहे हैं, भिड़ें लगी हैं। टिकट की खिड़कियों पर झगड़े हो रहे हैं। पूछो, क्या? समय काटना है। तीन घंटे सुख से कट जाएंगे। और किन छोटी-छोटी बातों में तुम अपने समय को काटते फिर रहे हो! मित्रों से झूठी गपशप में समय काट रहे हो। बिना यह जाने कि यही समय तुम्हें अमृत का अनुभव भी दे सकता है। और मैं तुमसे नहीं कहता कि हिमालय चले जाओ, सब छोड़-छाड़ दो। उससे कुछ न होगा। हिमालय पर बैठकर भी तुम शतरंज की चलें ही सोचोगे।

यहीं रहो। एक घंटा खींच लो। तेईस घंटे संसार को दे रहे हो, एक घंटा ईश्वर को दे देने की क्या इतनी कंजूसी! सोने के पहले बिस्तर पर बैठकर एक घंटा दे दो। और ज्यादा देर नहीं लगेगी कि तुम उस संपर्क में आ जाओ अपने भीतर, जहां अंतःसलिला की भांति अब भी गंगा जीवन की बह रही है। उसके पहले कि वह सुख जाए, उससे परिचय बना लेना जरूरी है। मृत्यु का भय मिट जाएगा। क्योंकि तब तुम जानोगे, मृत्यु होती ही नहीं।

मृत्यु इस दुनिया में सबसे बड़ा झूठ है। केवल शरीर बदलते हैं, घर बदलते हैं, वस्त्र बदलते हैं। लेकिन तुम्हारा जो सत्व है, वह सदा से वही का वही है। लेकिन उससे पहचान होनी चाहिए। उससे पहचान के अतिरिक्त धर्म का कोई अर्थ नहीं है। न तो मस्जिद जाने से यह होगा और न गुरुद्वारा जाने से और न मंदिर जाने से। क्योंकि वहां भी तुम वही कम्बख्तियां करोगे। आखिर तुम्हीं तो हो न। अब मंदिर में एक सुंदर स्त्री दिख गई तो बिना धक्का दिए कैसे रह सकते हो? और मंदिर जैसे पवित्र स्थान में ऐसा अपवित्र कार्य करना एकदम शोभनीय है!

नहीं, इस संसार में ही जहां सारा उपद्रव चल रहा है, असली मौका है, कसौटी है, अग्निपरीक्षा है। यही घंटे भर के लिए कभी भी...। और यूं भी नहीं है कि वह समय निश्चित हो। क्योंकि लोग बहाने खोजते हैं एक से एक, कि समय निश्चित करना मुश्किल है। मैं तुमसे नहीं कहता समय निश्चित करो। जब बन सके, लेकिन एक बात याद रखो, चौबीस घंटे में ही जीवन के सारे सत्यों का अवबोधन, अनुभव, तुम्हें मृत्यु के भय से छुड़ा देगा। जीवन को जान लो, फिर कोई मृत्यु नहीं है।


अलहिल्लाज मंसूर एक प्रसिद्ध सूफी हुआ, जिसका अंग-अंग काट दिया मुसलमानों ने, क्योंकि वह ऐसी बातें कह रहा था जो कुरान के खिलाई पड़ती थीं। धर्म के खिलाफ नहीं। मगर किताबें बड़ी छोटी हैं, उनमें धर्म समाता नहीं। अलहिल्लाज मंसूर की एक ही आवाज थी--अनलहक, अहम ब्रह्मास्मि! और यह मुसलमानों के लिए बरदाश्त के बाहर था कि कोई अपने को ईश्वर कहे। उन्होंने उसे जिस तरह सताकर मारा है, उस तरह दुनिया में कोई आदमी कभी नहीं मारा गया। उस दिन दो घटनाएं घटी।

मंसूर का गुरु जुन्नैद, सिर्फ गुरु ही रहा होगा। गुरु जो कि दर्जनों में खरीदे जा सकते हैं, हर जगह मौजूद हैं, गांव-गांव में मौजूद हैं। कुछ भी तुम्हारे कान में फूंक देते हैं और गुरु बन जाते हैं। जुन्नैद उसको कह रहा था कि देख, भला तेरा अनुभव सच हो कि तू ईश्वर है, मगर कह मत। अलहिल्लाज कहता कि यह मेरे बस के बाहर है। क्योंकि जब मैं मस्ती में छाता हूं और जब मौज की घटाएं मुझे घेर लेती है, तब न तुम मुझे याद रहते हो न मुसलमान याद रहते हैं, न दुनिया याद रहती हैं, न जीवन न मौत। तब मैं अनलहक का उदघोष करता हूं ऐसा नहीं है। उदघोष हो जाता है। मेरी सांस-सांस में वह अनुभव व्याप्त है।

अंततः वह पकड़ा गया। जिस दिन वह पकड़ा गया, वह अपनी ही परिक्रमा कर रहा था। लोगों ने पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो? ये दिन तो काबा जाने के दिन हैं। और जाकर काबा के पवित्र पत्थर के चक्कर लगाने के दिन हैं। तुम खड़े होकर खुद ही अपने चक्कर दे रहे हो? मंसूर ने कहा, कोई पत्थर अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव नहीं कर सकता, जो मैं अनुभव करता हूं। अपना चक्कर दे लिया, हज हो गई। बिना कहीं गए, घर बैठे अपने ही आंगन में ईश्वर को बुला लिया। ऐसी सच्ची बातें कहने वाले आदमी को हमेशा मुसीबत में पड़ जाना पड़ता है।

उसे सूली पर लटकाया गया, पत्थर फेंके गए, वह हंसता रहा। जुन्नैद भी भीड़ में खड़ा था। जुन्नैद डर रहा था कि अगर उसने कुछ भी न फेंका तो भीड़ समझेगी कि वह मंसूर के खिलाफ नहीं है। तो वह एक फूल छिपा लाया था। पत्थर तो वह मार नहीं सकता था। वह जानता था कि मंसूर जो भी कह रहा है, उसकी अंतर-अनुभूति है। हम नहीं समझ पा रहे हैं; यह हमारी भूल है। तो उसने फूल फेंककर मारा।

उस भीड़ में जहां पत्थर पड़ रहे थे...जब तक पत्थर पड़ते रहे, मंसूर हंसता रहा। और जैसे ही फूल उसे लगा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे! किसी ने पूछा कि क्यों पत्थर तुम्हें हंसाते हैं, फूल तुम्हें रुलाते हैं? मंसूर ने कहा, पत्थर जिन्होंने मारे थे वे अनजान थे। फूल जिसने मारा है, उसे यह वहम है कि वह जानता है। उस पर मुझे दया आती है। मेरे पास उसके लिए देने को आंसुओं के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और जब उसके पैर काटे गए और हाथ काटे गए, तब उसने आकाश की ओर देखा और जोर से खिलखिलाकर हंसा। लहूलुहान शरीर, लाखों की भीड़। लोगों ने पूछा, तुम क्यों हंस रहे हो? तो उसने कहा, मैं ईश्वर को कह रहा हूं कि क्या खेल दिखा रहे हो! जो नहीं मर सकता उसके मारने का इतना आयोजन...। नाहक इतने लोगों का समय खराब कर रहे हो। और इसलिए हंस रहा हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम छू भी नहीं सकते। तुम्हारी तलवारें उसे नहीं काट सकती। और तुम्हारी आगे उसे नहीं जला सकतीं।
एक बार अपने जीवन की धारा से थोड़ा सा परिचय हो जाए, मौत का भय मिट जाता है

                                                    *मित्रप्रेम ओशो*