प्रार्थना
मुझे कैसे प्रार्थना करनी चाहिए? मैं प्रार्थना करने में जो कुछ अनुभव करता है, मैं नहीं जानता कि अपने इस प्रेम की मैं किस तरह ठीक से अभिव्यक्त करूं?प्रार्थना कोई विधि नहीं है, वह कोई संस्कार नहीं है, और न वह कोई औपचारिकता है। यह हृदय का सहज स्वाभाविक उमड़ता उद्रेक है, इसलिए यह पूछो ही मत—कैसे? क्योंकि यहां कैसे जैसा कुछ है ही नहीं, और ' न कैसे जैसा ' कुछ हो भी सकता है।
जिस क्षण जो कुछ घटता है, वही ठीक है। यदि आंसू उमड़ते हैं तो अच्छा है। यदि तुम कोई गीत गाने लगते हो तो यह भी ठीक है। यदि तुम नाचने लगते हो, तो भी ठीक है। यदि अंदर से कुछ भी नहीं आ रहा है और तुम बस शांत खड़े रहते हो, तो यह भी ठीक है। क्योंकि प्रार्थना, कोई अभिव्यक्ति नहीं है, वह किसी खोल या आवरण में नहीं है, वह उस खोल या आवरण में बंद उस सारभूत तत्व में है।
कभी मौन ही प्रार्थनापूर्ण होता है, तो कभी गीत गाना प्रार्थना बन जाता है। यह सभी कुछ तुम पर और तुम्हारे हृदय पर निर्भर करता है। इसलिए यदि मैं तुमसे गीत गाने के लिए कहता हूं और तुम गीत इसलिए गाते हो क्योंकि ऐसा करने के लिए मैंने तुमसे कहा था, तब वह प्रार्थना शुरू से ही नकली और झूठी है। अपने हृदय की सुनो, उस क्षण को महसूस करो और उसे होने दो। और फिर जो कुछ भी होता है, वह ठीक ही होता है।
तुम्हारे साथ कभी कुछ भी नहीं घटेगा, लेकिन वह तो निरंतर घट ही रहा है, तुम उसे घटने की अनुमति तो दो, उस पर तुम अपनी इच्छा मत लादो। जब तुम पूछते हो—कैसे? तो तुम अपनी चाह थोपने की कोशिश कर रहे हो, तुम कोई योजना बनाने की कोशिश कर रहे हो। इसी तरह तुम प्रार्थना से चूक जाते हो। इसी कारण सभी धर्मस्थल और धर्म, संस्कार और कर्मकांड बन कर रह गए हैं। उनकी एक तय की गई निश्चित प्रार्थना है, उसका एक निश्चित रूप है, एक अधिकृत और स्वीकृत किया गया अनूदित वर्णन है। लेकिन कोई भी व्यक्ति कैसे प्रार्थना की शब्दावली को स्वीकृति प्रदान कर सकता है? कोई भी व्यक्ति कैसे उसका अधिकृत वर्णन तैयार कर तुम्हें दे सकता है? प्रार्थना तो तुम्हारे अंदर से उठती और उमगती है, और प्रत्येक क्षण में उसकी अपनी प्रार्थना होती है, और प्रत्येक चित्तवृत्ति में उसकी अपनी निजी प्रार्थना होती है। यह कोई भी नहीं जानता कि तुम्हारे आतरिक संसार में कल सुबह क्या घटने जा रहा है? उसे कैसे निश्चित और तय किया जा सकता है?
एक पहले से तैयार की गई प्रार्थना झूठी और नकली प्रार्थना है; यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है। एक निर्धारित विधि से तैयार संस्कारित प्रार्थना, प्रार्थना ही नहीं है उसके बाबत यह पूरी तौर से निश्चित रूप से कहा जा सकता है। एक असंस्कारित, सहज स्वाभाविक भाव भरी मुद्रा और कुछ भी नहीं, एक प्रार्थना ही है।
कभी तुम बहुत उदासी का अनुभव कर सकते हो, क्योंकि उदासी परमात्मा से ही सम्बंधित है। उदासी भी दिव्य होती है। यहां हमेशा प्रसन्न रहना भी कोई जरूरी नहीं है। तब यह उदासी ही तुम्हारी प्रार्थना है। तब तुम अपने हृदय को रोने और बिलखने दो, और आंखों को आंसू बरसाने दो। तब इस उदासी को ही परमात्मा की अर्पित कर दो। वहां तुम्हारे हृदय में जो कुछ भी हो, उसे ही उन दिव्य चरणों में अर्पित कर दो—वह प्रसन्नता हो अथवा उदासी, और कभी—कभी वह क्रोध या आक्रोश भी हो सकता है।
जब कभी कोई परमात्मा से नाराज भी हो सकता है। यदि तुम परमात्मा से नाराज नहीं हो सकते, तो तुमने प्रेम को जाना ही नहीं। जब कभी कोई वास्तव में एक गहरे उन्माद में हो सकता है। तब अपने क्रोध को ही अपनी प्रार्थना बन जाने दो। परमात्मा से लड़ो—वह तुम्हारा है और तुम उसके हो, और प्रेम कोई औपचारिकता नहीं जानता। प्रेम में सभी तरह के संघर्ष बने रह सकते हैं। यदि उसमें लड़ाई और संघर्ष का अस्तित्व न हो, तब वह प्रेम है ही नहीं। इसलिए जब कभी तुम्हें प्रार्थना करने जैसा कुछ भी अनुभव न हो, तो तुम उसे ही अपनी प्रार्थना बना लो। तुम परमात्मा से कहो—’‘ जरा ठहरो! देखो, मेरा मूड ठीक नहीं है, और तुम जिस तरह से यह सब कुछ कर रहे हो, यह कृत्य तुम्हारी प्रार्थना करने योग्य नहीं है।’’
लेकिन तुम इसे अपने हृदय का सहज स्वाभाविक भावोद्वेग बनने दो
परमात्मा के साथ कभी भी अप्रामाणिक बनकर मत रहो, क्योंकि यह तरीका उसके साथ अस्तित्व में बने रहने का नहीं है। यदि तुम परमात्मा के साथ ईमानदार नहीं हो—यदि गहरे में तो तुम शिकायत कर रहे हो और ऊपर ही ऊपर प्रार्थना कर रहे हो? तब परमात्मा तुम्हारी शिकायत की ओर ही देखेगा, प्रार्थना की ओर नहीं। तुम झूठे बन जाओगे। वह सीधे तुम्हारे हृदय में देख सकता है। तुम किसे धोखा देने अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है?
की कोशिश कर रहे हो? तुम्हारे चेहरेकी मुस्कान परमात्मा को धोखा नहीं दे सकती, तुम्हारा वास्तविक सत्य वह जान ही लेगा। केवल वही तुम्हारे सत्य को जान सकता है, उसके सामने झूठ ठहरता ही नहीं। इसलिए वहां सत्य को ही बने रहने दो। तुम उसे केवल अपना सत्य ही भेंट करो और कहो— आज मैं तुमसे नाराज हूं तुम्हारे इस संसार से नाराज हूं तुम्हारे द्वारा दिए इस जीवन से नाराज हूं। मैं तुमसे घृणा करता हूं। और मैं तुम्हारी प्रार्थना भी नहीं कर सकता, इसलिए तुम्हें आज मेरी प्रार्थना के बिना ही रहना होगा। मैंने अब तक बहुत सहा है, अब तुम सहो।
उससे इसी तरह बात करो जैसे कोई अपने प्रेमी या मित्र या मां के साथ बातचीत करता है। उससे ऐसे बात करो जैसे कोई छोटे बच्चे के साथ बात सकता है। मैं एक परिवार के साथ ठहरा हुआ था, और वहां मां ने अपने छोटे बच्चे को प्रार्थना करने का आदेश दिया। वह बच्चा अभी सोने के लिए बिस्तरे पर जाने के लिए तैयार नहीं था और वह कुछ देर और मेरे पास रहना चाहता था। उसकी प्रार्थना करने में भी कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन वह परिवार बहुत अधिक अनुशासन प्रेमी था इसलिए उन्होंने उससे कहा—’‘ अब नौ बज गये हैं। तुम सोने के लिए जाओ, और देखो, प्रार्थना करना भूल मत जाना।’’
मैं देख सकता था कि वह बहुत नाराज था। वह अपने कमरे में गया। मैंने केवल यह सुनने के लिए ही, कि वह कैसी प्रार्थना करने जा रहा है, उसका चुपके से पीछा गया। अंधेरे में मैंने उसे यह कहते हुए सुना—’‘ हे परमात्मा तू बुरे लोगों को अच्छा बना और अच्छे लोगों को बहुत अच्छा ''। वह जानता था कि उसके माता और पिता अच्छे तो हैं लेकिन वे बहुत अधिक अच्छे नहीं हैं।
मैंने एक अन्य दूसरे बच्चे के बारे में भी सुना है। मैं एक परिवार के साथ एक अतिथि गृह में ठहरा हुआ था। पहली रात बच्चे ने प्रार्थना की। वह बच्चा सोते हुए हमेशा मद्धिम प्रकाश जलाये रखता था, लेकिन उस रात बिजली चले जाने से गहन अंधकार था। उसके प्रार्थना प्रारम्भ करते ही बिजली चली गई थी। वह बिस्तरे से उठकर अपनी मां से बोला—’‘ अब मुझे फिर से और अधिक सावधानी से प्रार्थना करनी होगी क्योंकि रात और अधिक अंधेरी होती जा रही है।’’ पहले तो उसने कामचलाऊ औपचारिक प्रार्थना की थी, लेकिन अब चूंकि रात अंधरी हो गई थी और वहां कोई प्रकाश भी न था, इसलिए वह अधिक भयभीत था। उसने कहा— '' मुझे अब फिर से प्रार्थना करनी होगी। मुझे फिर बिस्तरे से उठकर कहीं अधिक सावधानी से प्रार्थना करनी होगी क्योंकि अब यहां कहीं अधिक खतरा है।’’
एक बच्चे बनकर ही बच्चों की प्रार्थनाएं सुनो।
सभी धर्म कहते हैं कि परमात्मा परमपिता है। वास्तव में जोर इस बात पर होना चाहिए कि मनुष्य एक बच्चे की भांति है। जब हम परमात्मा को परमपिता कहते हैं तो उसका असली अर्थ यही है। लेकिन हम लोग यह भूल गए है— परमात्मा परमपिता है, लेकिन हम लोग उसके बच्चे नहीं हैं। इसे भूल जाओ कि वह तुम्हारा पिता है अथवा नहीं, तुम बस एक छोटे बच्चे की भांति हो जाओ—सहज, स्वाभाविक सच्चे और प्रामाणिक। मुझसे या किसी दूसरे से भी यह पूछो ही मत कि प्रार्थना कैसे की जाये? क्षण को ही यह तय करने दो, यह क्षण ही निर्णायक होगा और उस क्षण का सत्य ही तुम्हारी प्रार्थना होनी चाहिए।
यही मेरा उत्तर है उस क्षण का सत्य, वह चाहे जो भी हो, जैसा भी हो, बिना शर्त तुम्हारी प्रार्थना बन जाना चाहिए। और एक बार उस क्षण का सत्य तुम्हारी सम्पत्ति बन जाता है, तुम विकसित होना शुरू हो जाओगे और तुम तभी प्रार्थना के अतुलित सौंदर्य को जानोगे। तुम पथ में प्रविष्ट हो चुके हो। लेकिन यदि तुम केवल एक ही प्रार्थना एक ही विधि से दोहराते चले जाओगे तब तुम चूक जाओगे। तुम पथ में कभी प्रविष्ट ही न हो सकोगे, और तुम केवल उससे बाहर ही बने रहोगे।
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